हस्तरेखा विज्ञान क्या है? कैसे करता है काम?

हमारे देश में पिछले 2500 वर्षों से लोगों की यह धारणा रही है कि हाथों की रेखाएं देखकर आदमी का भविष्य बताया जा सकता है । भारत से ही यह धारणा दूसरे देशों में भी फैली । आरम्भ में ज्योतिषी पैरों के तलओं की रेखाएं भी देखा करते थे , परन्तु बाद में यह अनुभव किया गया कि हाथों की रेखाएं देखना अधिक आसान है ।

हाथ की रेखाओं को पढ़ने के विज्ञान को हस्तरेखा विज्ञान कहते हैं । इससे व्यक्ति का चरित्र , उसका भविष्य और भविष्य के उतार – चढ़ाव बताये जाते हैं । यद्यपि हस्तरेखा विज्ञान का कोई वैज्ञानिक आधार अभी तक स्थापित नहीं हो पाया है , परन्तु अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हाथ की बनावट और रेखाओं के अनुसार व्यक्ति के काम – धन्धों , आदतों और स्वभाव , रुचियों और उसके व्यक्तित्त्व का किसी सीमा तक पता चल सकता है । यह कहना मुश्किल है कि इन रेखाओं में कोई आत्मिक शक्ति होती है ।

Hastrekha
हस्तरेखा

प्राचीन ज्योतिषियों के अनुसार सबसे ऊपर की रेखा का सम्बन्ध हृदय से होता है । यह प्रेम करने की शक्ति के विषय में बताती है । इसके नीचे की रेखा का सम्बन्ध मस्तिष्क से माना जाता है । इसे मस्तिष्क रेखा कहते हैं । भाग्य रेखा इन दोनों को काटती हुई जाती है । मस्तिष्क रेखा के नीचे जो वक्र रेखा है , उसे जीवन रेखा कहते हैं । इस की लम्बाई के आधार पर व्यक्ति की आयु ज्ञात की जाती है ।

हाथ पर और भी अनेक रेखाएं होती हैं , जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालती हैं । आज के हस्तरेखा वैज्ञानिक भी इन रेखाओं को इन्हीं नामों से पुकारते हैं, और प्राचीन ज्योतिषियों की तरह ही इनके अर्थ पढ़ते हैं । यदि किसी ज्योतिषी की भविष्यवाणी सही निकलती है तो उसे याद किया जाता है । गलत भविष्यवाणी को लोग भूल जाते हैं । कुछ भी हो इन भविष्यवाणियों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता , परन्तु इसे पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता । वैसे भविष्य बताने के जो और तरीके बरते जाते हैं , उन पर भी आशिक रूप से ही सही, विश्वास किया जा सकता है ।

कला ( Art )

‘कला’ शब्द भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से प्रयुक्त होता रहा है। ‘कला’ शब्द ‘कल’ धातु से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘सुन्दर’। ‘कला’ शब्द में ‘ला’ धातु भी लगती है जिसका अर्थ है ‘प्राप्त करना’ । अर्थात् कला का अर्थ है ‘सुंदर को प्राप्त करना’ । अतः कला वह मानवीय क्रिया है , जिसका विशेष लक्षण ध्यान दृष्टि से देखना , चिंतन करना , संकलन करना , स्पष्ट रूप से प्रकट करना है । ‘कला’ शब्द के प्रर्यायवाची के रूप में ‘शिल्प’, आर्ट तथा ‘कौशल’ शब्दों का प्रयोग भी होता रहा है ।

मानव मूलतः सौंदर्य का प्रेमी रहा है । अपने जीवन के हर क्षेत्र में मानव सुन्दरता की कामना करता है । मानव की इसी सौंदर्य भावना से कला का जन्म हुआ । प्राकृतिक सौंदर्य से प्रभावित होकर मानव ने सुंदर कलाकृतियों का निर्माण किया । मानव जब अपने भावों को व्यक्त करने के लिए किसी माध्यम का प्रयोग करता है तो कला का सृजन आरम्भ होता है । कला मानव का अनुभव है । वह उसके विचारों , भावों आदि को व्यक्त करने का एक माध्यम है । सभी मानवीय क्रियाएँ जो सृष्टि में होती हैं कला कही जाती है । मानव अपने मन – मस्तिष्क तथा शरीर से जो कार्य करने की चेष्टा करता है वह ही कला है । अतः जिस कृति का सृजन मानव करता है , वह कला है ।

कला मानव के भावों तथा विचारों को प्रकट करने का माध्यम है । मानव का यह स्वभाव है कि वह नई – नई वस्तुओं के विषय में जानने के लिए उत्सुक रहता है . ज्ञान की प्राप्ति कई प्रकार से करता है , नवीन वस्तुएं बनाता है । मानव के हर कार्य को कला की संज्ञा दी गई है । अतः मानव जो भी कार्य करता है वह कला है । कला एक क्रमिक विकास है । इसके चार चरण हैं |

1. सबसे पहले आंतरिक इच्छा का होना ।

2. इस इच्छा को पूरा करने की पूर्ण चेष्टा करना ।

3. इच्छा , चेष्टा तथा क्रिया से ही कलाकृति का जन्म होना ।

4. कलाकृति से दर्शक पर पड़ने वाला प्रभाव ।

कला का क्षेत्र व्यापक है। हर विद्वान ने अपने-अपने आधार पर कला को वर्गीकृत किया है। मुख्य रूप से मानव शरीर के मन तथा-मस्तिष्क के आधार पर ही कला के वर्गीकरण किए गए हैं । परन्तु अधिकतर व्यक्ति बुद्धि को ही सर्वाधिक महत्व देते हैं । इसी आधार पर कला को दो वर्गों में बाँटा गया है ।

1. यांत्रिक कलाएँ

2. ललित कलाएँ

1. यांत्रिक कलाएँ – उपयोगी कलाएं यांत्रिक कलाएँ कहलाती हैं । ये कलाएँ मानव जीवन के लिए उपयोगी होती है । ये भौतिक सुख प्रदान करती है । इन्हीं कलाओं के द्वारा हमें दैनिक जीवन की आवश्यकता की चीजों की प्राप्ति होती हैं । इन कलाओं में उद्देश्य की पूर्ति के अनुसार ही कल्पना शक्ति का प्रयोग होता है । जैसे एक मिस्त्री कुर्सी बनाते उसे कुछ भी आकृति दे सकता है पर वह यह बात हमेशा ध्यान में रखता है कि कुर्सी का प्रयोग सही रहे अर्थात् वह बैठने में आरामदायक हो ।

क्या होते हैं? नोवा ( Nova ) और सुपरनोवा ( Supernova )।

क्या होते हैं? नोवा ( Nova ) और सुपरनोवा ( Supernova )।

विज्ञान की बहुत सी रोचक घटनाएँ एवं तथ्य है जिनके विषय मे अन्जान है उन रोचक तथ्यों में एक है “नोवा”। आइए जानते है आखिरकार ये है क्या?

कुछ तारे जो लाखों वर्षों से लगातार सामान्य तारों की तरह चमक रहे होते हैं , आश्चर्यजनक रूप इनकी चमक एकाएक बढ़ जाती है । एक सामान्य दर्शक को ऐसा अनुभव होता है कि एक नया बेहद चमकदार सितारा आकाश में उग आया है । इसीलिए इन तारों को नवतारा या “नोवा” कहते हैं । नोवा शब्द का अर्थ- नया भी है ।

चमक में यह बढ़ोतरी इसलिये होती है , क्योंकि तार में हुआ कोई एक विस्फोट उस तारे के एक लाखवें भाग से भी कम पदार्थ को ऊपर उछाल देता है । यह पदार्थ वास्तव में गैस का एक विशाल गोला होता है , जो अन्तरिक्ष में बहुत तेजी के साथ फैलता है । नोवा के प्रकाश की अधिकतम चमक कुछ घंटों या कुछ दिनों में पहुंच जाता है और फिर धीरे – धीरे अपनी मूल चमक पर वापस आ जाता है।

अब तक खगोलशास्त्री निश्चित रूप से यह नहीं जान पाये हैं कि नवतारा आखिर किस कारण से बनता है । ऐसा अनुमान है कि हमारी मन्दाकिनी में प्रति वर्ष लगभग 20-30 नवतारे बनते हैं । कुछ तारे एक से अधिक बार नवतारों में बदलते हैं , इसलिए इन्हें प्रत्यावती ( recurrent ) नवतारे कहा जाता है।

प्रत्यावर्ती नवतारे काफी दीर्घ अन्तराल के बाद भड़कते हैं। हमारी मन्दाकिनी में इस तरह के पांच तारे पहचाने जा चुके हैं। ऐसा देखा गया है, कि सामान्य नवतारे की चमक सूर्य की चमक से 10,000 से 10,00,000 गुना तक अधिक होती है।

नोवा के विस्फोट में उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा 1045 अर्ग के लगभग होती है । इतनी ऊर्जा का विकिरण सूर्य से 10,000 वर्षों में होता है । यदि कभी सूर्य पर इस तरह का विस्फोट हो जाये तो पृथ्वी कुछ ही घंटों या दिनों में नष्ट हो जायेगी, पर सूर्य जैसे तारों में ऐसे विस्फोट की सम्भावना नहीं के बराबर है । अधिकतम चमक प्राप्त करने के बाद एक सामान्य नवतारा अलग – अलग दर से पहली स्थिति तक वापस पहुचता है । चमक कम होने की दर भी एक समान नहीं होती । कछ सालों के बाद इस तारे की चमक स्थिर हो जाती है , लेकिन गैस का बादल फिर भी इसके चारों तरफ देखा जा सकता है , जो सैकड़ों किलोमीटर प्रति सेकिंड की रफ्तार से फैल रहा होता है ।

सुपरनोवा का बनना नवतारे से बहुत अधिक भव्य दृश्य होता है । इस विस्फोट में तारा अपने पदार्थ का लगभग दसवां भाग उछाल देता है । इसमें तारे की चमक अरब गुना से भी अधिक हो जाती है । 1054 में टॉरस तारे पर सुपरनोवा विस्फोट हुआ था । उस समय यह इतना चमकदार हो गया था कि दिन में भी दिखाई पड़ता था । इसके अवशिष्ट भाग से आकाश में केकड़े की शक्ल की नीहारिका बन गई , जो आज आकाश की सबसे मनोहारी चीज कही जा सकती है । 1572 में टाइको ब्राहे ने एक सुपरनोवा देखा था , जो दिन में भी दिखाई देता था । इस तरह 1604 में जोहान्स कैपलर को भी ऐसा ही अनुभव हुआ । हमारी मन्दाकिनी में अन्तिम बार यही सपरनोवा देखा गया था । किसी भी मन्दाकिनी में सुपरनोवा विस्फोट 300 साल में एक बार होता है । दूसरी मन्दाकिनियों में भी नोवा और सुपरनोवा के विस्फोट इसी अन्तराल में घटते हैं ।

Malmas 2020: मलमास कब से शुरू हो रहे हैं, जानें इस मास में वर्जित कार्य

अधिकमास
अधिमास (मलमास)

इस वर्ष 18 सित. से 16 अक्टूबर 2020 तक होगा

“इस वर्ष आश्विनमास में ही अधिमास लग रहा है- इस मास में शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक सूर्य की संक्रान्ति नहीं होगा । अतः कहा गया है कि ” असंक्रान्ति मासोऽधिमासः स्फुटः स्यात ” अर्थात जिस चान्द्रमास में सूर्य की संक्रान्ति न हो उसे अधिमास कहते हैं ।

Publication (प्रकाशन)

PRAYAG Culture एक तेज बहुआयामी शैक्षिक अनुसंधान मंच है, जो उन व्यक्तियों को अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए एक आदर्श जटिल अवसर प्रदान करता है, जो अपने स्वयं के तथा समाज में एक बेहतर सुधार के लिए लंबे समय तक काम करते हैं। हमारे प्रकाशन मण्डल ने दुनिया भर में चेतना और सम्वेदनाएँ जागृत करने के लिये “अन्तर्विषयी” संस्कृति, कला से सम्बद्ध लेखों के प्रकाशन का निर्णय लिया है। हम बहुविषयक मुद्दों के ज्ञान के लिए हमारे नेक प्रयासों पर चिंतनपूर्वक संलग्न हैं। हम इस इलेक्ट्रॉनिक प्रकाशन से सटीक और उपयुक्त स्पर्श के साथ विशद अनुसंधान प्रविष्टियों को बढ़ावा देते हैं और धारणा और स्थापना के बीच की खाई को पाटते हैं। …

मंगल दोष विचार

मंगल दोष विचार

आजकल विवाह में भौम चिन्तन विशेष प्रचलित हो गया है । वर कन्या के जन्मकुण्डली या चन्द्रकुण्डली के लग्न , चतुर्थ , सप्तम , अष्टम , द्वादश भावों में अवस्थित मंगल परस्पर कष्टदायक होता है अर्थात् वर के कुण्डली में भौम दोष हो तो कन्या का नाश और कन्या के हो तो वर का नाश होता है ।

मुहूर्त संग्रह के अनुसार-

लग्ने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजः।

कन्या भर्तृविनाशाय भर्ता कन्या विनाशकृत ।।

       ज्योतिष शास्त्र में मंगल , शनि , सूर्य , राहु , केतु को पापग्रह माना गयाँ है । ये सभी नैसर्गिक रुप से पापी होते हैं तथा अपनी दृष्टि एवं युति द्वारा किसी भी भाव के फल को नष्ट कर सकते है |

1- इन पाँचों पापग्रहों के १,४,७,८,१२ भावों में रहने पर दाम्पत्य जीवन में अनेक बाधायें आती रहती हैं। किन्तु मंगल , शनि , सूर्य , राहु , केतु उत्तरोतर कम अनिष्टकारी होते हैं अर्थात् मंगल सबसे अधिक एवं केतु कम अरिष्ट कारक होता है ।

2- इसी प्रकार सप्तम लग्न चतुर्थ , अष्टम एवं व्यय भाव ( स्थान ) में स्थित पापग्रहों से मंगली योग का प्रभाव भावों के अनुसार उत्तरोतर कम होता है अर्थात् सप्तम में सर्वाधिक एवं द्वादश में सबसे कम प्रभाव होता है।
3- जन्म लग्न एवं चन्द्र राशि एवं शुक्र स्थित राशि से मंगल दोष का विचार होता है | लग्न एवं शुक्र से बनने वाले मंगल दोष की अपेक्षा चन्द्र से बनने वाला मंगल दोष ( मंगली ) प्रबल होता है।
4- कुछ आचार्यों के अनुसार लग्न एवं चन्द्र से बनने वाले दोष की अपेक्षा शुक्र से बनने वाला मंगल दोष प्रबल होता है। उनका मानना है कि शुक्र रति एवं दाम्पत्य का कारक होता है अतः इससे बनने वाला मंगल दोष विशेष प्रभावकारी होता है।

भौम दोष परिहार (बचने के उपाय)

1-यदि वर के जन्म के समय सूर्य , मंगल , शनि , राहु , केतु आदि कोई पापग्रह 1,4,7,8,12 भाव मे हो तो कन्या का मंगली दोष समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार कन्या के कुण्डली में होने पर वर का दोष मिट जाता है –
शनि भौमोऽथवा कश्चित्पापो वा तादृशो भवेत् ।
तेष्वेव भवनेष्वेव भीमदोषविनाशकृत् ।।
2- यदि वर या कन्या के 1,4,7,8,12 वें शनि हो तो दूसरे का भौम दोष समाप्त हो जाता है ।
जामित्रे च यदा शैरिर्लग्ने च हिबुकेऽथवा।
अष्टमे द्वादशे वापि भौमदोषो न विद्यते ।।3- बलान्वित गुरु , शुक्र लग्न या सप्तम में हो तो भौम दोष नहीं होता ।
4- वक्री , नीचस्थ , अस्तंगत अथवा शत्रुक्षेत्री गुरु , शुक्र उपर्युक्त स्थानों में होने पर भौम दोष नहीं होता । यथा –
सबले गुरौ भृगौ वा लग्ने छूनेऽथवा भौमें |
वक्रे नीचारि गृहस्ये वाऽस्तेऽपि न कुज दोषः।।
5- जिस कन्या का भौम दोष हो उसका विवाह ऐसे वर से करें जिसकी जन्म कुण्डली में मंगल दोष का शमन करने वाले योग हो।
6- शुक्र से 12,7,8 वें पापग्रह हो तो वर कन्या का नाशक होता है | यथा-

शुक्रः खलान्तरगतः सखलः सिताद्वा पापाः व्ययास्तमृतिगा रमणीहराः स्युः।

7- गुण की बाहुल्यता होने पर वर कन्या दोनों के भौमजन्यदोष समाप्त हो जाता है ।

राशिमैत्रं यदा याति गुणैक्यं वा यदा भवेत् ।
अथवा गुणबाहुल्ये भौम दोषो न विद्यते।

8-यदि मेषस्थ भौम लग्न में , वृश्चिकस्थ भौम चतुर्थ में , मकरस्थ भौम सातवें , कर्कस्थ भौम आठवें तथा धनुस्थ भौम बारहवें हो तो भौम दोष नहीं होता है ।

अजे लग्ने व्यये चापे पाताले वृश्चिके कुजे ।
यूने मृगे कर्किचाष्टौ भौमदोषो न विद्यते ।।

9- द्वितीय भाव में चन्द्र – शुक्र , गुरु दृष्ट मंगल , केन्द्रस्थ राहु एवं राहु – मंगल युति भौम दोष का नाशक होता है | किन्तु इसका विचार विशेष परिस्थितियों में ही करें |

न मंगली चन्द्रभृगुद्वितीये , न मंगली पश्यति यस्य जीवः ।
न मंगली केन्द्रगते च राहुर्न मंगली मंगलराहुयोगे ।

10- केन्द्र- त्रिकोण में शुभग्रह तथा 3,6 ,11 में पापग्रह हों तथा सप्तमेश स्वगृही हो तो मंगल दोष नहीं होता ।

केन्द्रकोणे शुभाट्ये च त्रिषडायेऽप्यसद्ग्रह ।
तदा भौमस्य दोषो न मदने मदपस्तथा ।।

11- कन्या की कुण्डली में विधवा योग हो तो विधुर योग वाले वर के साथ विवाह करने से उनका दाम्पत्य जीवन चिरस्थायी तथा सुखमय होता है |


श्राद्ध विशेषांक ( वार्षिकी श्राद्ध )


1. श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसी को श्राद्ध कहते हैं।

2. हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं।

3. इस धर्म में, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं।

4. यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है जिसे श्राद्ध कहते हैं।

  • श्राद्ध एक परिचय

ब्रह्म पुराण ने श्राद्ध की परिभाषा इस प्रकार की है,

जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।

  • मिताक्षरा ने श्राद्ध को इस प्रकार परिभाषित किया है, पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।
  • कल्पतरु की परिभाषा इस प्रकार है, पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।
  • रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिताक्षरा के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ सी गयी है।
  • याज्ञवल्क्यस्मृति का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं।
  • यह वचन एवं मनु की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए।
  • कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से) किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गौण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।
  • श्राद्ध और पितर

श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की पितर संज्ञा हो जाती है।

मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों।

साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक,

चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों। – वायु पुराण।

1. श्राद्ध क्या है ?

श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो दान-दक्षिणा आदि, दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है।

20 अंश रेतस (सोम) को पितृॠण कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिण्ड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धावान मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।

2. श्राद्ध के देवता

वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।

3. श्राद्ध क्यों ?

हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।

4. श्राद्ध के प्रकार

श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-

नित्य- यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर किया जाता है।

नैमित्तिक– किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे – पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।

काम्य– यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।

  • कौन कर सकता है ? श्राद्ध करने को उपयुक्त

  1. साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है।
  • विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है।
  • नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता।
  • किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।

श्राद्ध के लिए उचित बातें

  1. श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं- तिल, माष (उड़द), चावल, जौ, जल, मूल, (जड़युक्त सब्जी) और फल।
  • तीन चीज़ें शुद्धिकारक हैं – पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल या कुश।
  • तीन बातें प्रशंसनीय हैं – सफ़ाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता)) का न होना।
  • श्राद्ध में महत्त्वपूर्ण बातें – अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छ्ता, उदारता से भोजन आदि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मण की उपस्थिति।

श्राद्ध के लिए अनुचित बातें

  1. कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं प्रयुक्त होते- मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्रजल से बना नमक।
  • भैंस, हिरणी, उँटनी, भेड़ और एक खुरवाले पशु का दूध भी वर्जित है पर भैंस का घी वर्जित नहीं है।
  • श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने जाते हैं। श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता है।
  • जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो, सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है।

भाद्रपद में ही पितृपक्ष का श्राद्ध क्यों ?

  1. हमारा एक माह चंद्रमा का एक अहोरात्र होता है। इसीलिए ऊर्ध्व भाग पर रह रहे पितरों के लिए कृष्ण पक्ष उत्तम होता है।
  • कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनके दिनों का उदय होता है। अमावस्या उनका मध्याह्न है तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी अंतिम दिन होता है।
  • धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि व ऊर्जा प्रदान करते हैं।
  • ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पृथ्वी लोक में देवता उत्तर गोल में विचरण करते हैं और दक्षिण गोल भाद्रपद मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नज़दीक से गुजरता है।
  • इस मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच जाते है और वहाँ अपना सम्मान पाकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी नई पीढ़ी को आर्शीवाद देकर चले जाते हैं। ऐसा वर्णन श्राद्ध मीमांसा में मिलता है।
  • इस तरह पितृ ॠण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध काल में पितरों का तर्पण और पूजन किया जाता है। भारतीय संस्कृति एवं समाज में अपने पूर्वजों एवं दिवंगत माता-पिता के स्मरण श्राद्ध पक्ष में करके उनके प्रति असीम श्रद्धा के साथ तर्पण, पिंडदान, यक्ष तथा ब्राह्मणों के लिए भोजन का प्रावधान किया गया है।

ऎसे करना चाहिए श्राद्ध की तिथि का चयन

पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा पितृ पक्ष में।

  1. श्राद्ध की वही तिथि ली जाती है, जिस दिन व्यक्ति के पितरों ने अपने प्राण त्यागे हैं। जैसे किसी व्यक्ति की मृत्यु प्रतिपदा तिथि को हुई है तो उसका श्राद्ध हर वर्ष प्रतिपदा तिथि के दिन ही सम्पन्न किया जाएगा। जिन व्यक्तियों की मृत्यु की तिथि के बारे में पता नहीं होता है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन करना चाहिए।
  • एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिण्ड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है।
  • यदि किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथियाँ याद नहीं है, तो वह अमावस्या के दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान तर्पण, श्राद्ध कर सकता है।
  • इस दिन किया गया तर्पण करके 15 दिन के बराबर का पुण्य फल मिलता है और घर परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में विशेष उन्नति होती है।
  • यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई है, तो पितृदोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्मशांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिए।

सामर्थ्यनुसार किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से श्रीमद्‌ भागवत पुराण की कथा अपने पितरों की आत्मशांति के लिए करवा सकते हैं। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, धन से बरकत न होना सारी सुख सुविधाओं के होते भी मन असंतुष्ट रहना आदि परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।

मातामह श्राद्ध

  1. मातामह श्राद्ध अपने आप में एक ऐसा श्राद्ध है जो एक पुत्री द्वारा अपने पिता को व एक नाती द्वारा अपने नाना को तर्पण किया जाता है।
  2. इस श्राद्ध को सुख शांति का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह श्राद्ध करने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें है अगर वो पूरी न हो तो यह श्राद्ध नहीं निकाला जाता है।
  3. कुछ विद्वानों का यह मत है कि मातामह श्राद्ध उसी औरत के पिता का निकाला जाता है जिसका पति व पुत्र ज़िन्दा हो अगर ऐसा नहीं है और दोनों में से किसी एक का निधन हो चुका है या है ही नहीं तो मातामह श्राद्ध का तर्पण नहीं किया जाता।
  4. लेखक इस मत का समर्थन नहीं करता ।

श्राद्ध में कुश और तिल का महत्त्व

दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।

कम ख़र्च में श्राद्ध

विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र व्यक्ति केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए या किसी गाय को दिन भर घास खिला देनी चाहिए अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि हे प्रभु मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।

कौओं का महत्त्व

ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौए का जन्म लेता है और ऐसी मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है। इसी कारण है कि श्राद्ध पक्ष में कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है।

  1. जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है वह एक थाली में सारा खाना परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और ज़ोर ज़ोर से कोबस कोबस कहते हुए कौओं को आवाज़ देता है। थोडी देर बाद जब कोई कौआ आ जाता है तो उसको वह खाना परोसा जाता है।
  2. पास में पानी से भरा पात्र भी रखा जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध है वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है।
  3. कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज़ है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोड़कर किसी भी ग़लती के लिए माफ़ी माँग ली जाती है और फिर कौए को खाना खाने के लिए कहा जाता है। जब तक कौआ खाना नहीं खाता व्यक्ति के मन को प्रसन्नता नहीं मिलती। इस तरह श्राद्ध पक्ष में कौओं की भी पौ बारह है।

पिण्ड का अर्थ

श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे सपिण्डीकरण कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर।

यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित गुणसूत्र उपस्थित होते हैं।

चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।

अनुष्ठान का अर्थ

अपने दिवंगत बुजुर्गों को हम दो प्रकार से याद करते हैं-

• स्थूल शरीर के रूप में

• भावनात्मक रूप से।

स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि को या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति कर उनके भावनात्मक शरीर की पूजा करते हैं ताकि

वे तृप्त हों और हमें सपरिवार अपना स्नेह पूर्ण आशीर्वाद दें,,,

श्राद्ध का वैज्ञानिक पहलू

जन्म एवं मृत्यु का रहस्य अत्यन्त गूढ़ है।

वेदों में, दर्शन शास्त्रों में, उपनिषदों एवं पुराणों आदि में हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इस विषय पर विस्तृत विचार किया है।

  1. श्रीमदभागवत में भी स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। यह प्रकृति का नियम है। शरीर नष्ट होता है मगर आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती है। वह पुन: जन्म लेती है और बार-बार जन्म लेती है।
  2. इस पुन: जन्म के आधार पर ही कर्मकाण्ड में श्राद्धदि कर्म का विधान निर्मित किया गया है। अपने पूर्वजों के निमित्त दी गई वस्तुएँ सचमुच उन्हें प्राप्त होती हैं या नहीं, इस विषय में अधिकांश लोगों को संदेह है। हमारे पूर्वज अपने कर्मानुसार किस में उत्पन्न हुए हैं, जब हमें इतना ही नहीं मालूम तो फिर उनके लिए दिए गए पदार्थ उन तक कैसे पहुँच सकते हैं ?
  3. क्या एक ब्राह्मण को भोजन कराने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है ? न जाने इस तरह के कितने ही सवाल लोगों के मन में उठते होंगे।

वैसे इन प्रश्नों का सीधे-सीधे उत्तर देना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक मापदण्डों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता।

दुनिया में ऐसी कई बातें हैं, जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पड़ता है।

अब श्राद्ध संस्कार को ही लीजिए। श्राद्ध सूक्ष्म शरीरों के लिए वही काम करते हैं, जो जन्म के पूर्व और जन्म के समय के संस्कार स्थूल शरीर के लिए करते हैं। यहाँ से दूसरे लोक में जाने और दूसरा शरीर प्राप्त करने में जीवात्मा की सहायता करके मनुष्य अपना कर्तव्य पूरा कर देता है।

इसलिए इस क्रिया को श्राद्ध कहते हैं, जो श्रृद्धा से बना है। श्राद्ध की क्रियाएँ दो भागों में बँटी हुई हैं।

• पहला प्रेत क्रिया और

• दूसरा पितृ क्रिया।

ऐसा माना जाता है कि मरा हुआ व्यक्ति एक वर्ष में पितृ लोक पहुँचता है। अत: सपिंडीकरण का समय एक वर्ष के अन्त में होना चाहिए।

परन्तु इतने दिनों तक अब लोग प्रतिक्षा नहीं कर पाते हैं। इस स्थिति में सपिंडीकरण की अवधि छह महीने से अब 12 दिन की हो गई है। इसके लिए गरुड़ पुराण का श्लोक आधार है-

अनित्यात्कलिधर्माणांपुंसांचैवायुष: क्षयात्।

अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहे प्रशस्यते।।

अर्थात् कलियुग में धर्म के अनित्य होने के कारण पुरुषों की आयु क्षीणता तथा शरीर के क्षण भंगुर होने से बारहवें दिन सपिंडी की जा सकती है। वर्णानुसार यह दिन आगे भी बढ़ जाता है। बारहवाँ दिन उनके लिए है,जिनकी शुद्धू दस दिनों में हो जाती है,,,

जिस प्रकार सभी संस्कार प्रकृति के कार्य को सहायता पहुँचाने के लिए बने हैं, उसी प्रकार प्रेत क्रिया का भी उद्देश्य यही है कि वह प्राणमय कोश की, अन्नमय कोश के यथावत रहने के समय तक उस पर अवलंबित रहने की प्रकृति को नष्ट कर दे और जब तक प्रकृति अपनी साधारण प्रक्रिया में पहुँचाना चाहे, उस मनुष्य को भूलोक में इस प्रकार धारण किए रहे। इस विषय में सबसे पहला आवश्यक कार्य यह है कि अन्नमय कोश नष्ट कर दिया जाए और वह दाह करने से हो जाता है।

छान्दोग्योपनिषद में उल्लेख है–
ते प्रेतं दिष्टमितो अग्नय ऐ हरन्ति यत एवेतो यत: संभूतो भवति।
अर्थात् जैसा निर्दिष्ट है, वे मृतात्मा को अग्नि के पास ले जाते हैं, जहाँ से वह आया था और जहाँ से वह उत्पन्न हुआ था। शव में आग लगाने से पूर्व दाहकर्ता चिता की परिक्रमा करता है और उस पर इस मंत्र के साथ जल छिड़कता है– वीत वि च सर्पत अत:। अर्थात् जाओ, अपसरण करो, विदा हो जाओ, जब तक दाह होता रहता है, तब तक कहा जाता है। बाद में बची हुई हड्डियों का संचय करके प्रवाह कर दिया जाता है। इसके बाद मनोमय कोष के विश्लेषण करने का काम आता है, जिससे प्रेत बदल कर पितृ हो जाता है। सभी संस्कारों विवाह को छोड़कर श्राद्ध ही ऐसा धार्मिक कृत्य है, जिसे लोग पर्याप्त धार्मिक उत्साह से करते हैं। विवाह में बहुत से लोग कुछ विधियों को छोड़ भी देते हैं, परन्तु श्राद्ध कर्म में नियमों की अनदेखी नहीं की जाती है। क्योंकि श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य परलोक की यात्रा की सुविधा करना है।

श्राद्ध सूक्ष्म शरीरों के लिए वही काम करते हैं, जो कि जन्म के पूर्व और जन्म के समय के संस्कार स्थूल शरीर के लिए करते हैं। इसलिए शास्त्र पूर्वजन्म के आधार पर ही कर्मकाण्ड में श्राद्धादि कर्म का विधान निर्मित करते हैं।

वेदान्त के अनुसार

श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डेयपुराण के आधार पर जो तर्क उपस्थित किये हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं और उनमें बहुत खींचातानी है।

मार्कण्डेय एवं मत्स्य, ऐसा लगता है, वेदान्त के इस कथन के साथ हैं कि आत्मा इस शरीर को छोड़कर देव या मनुष्य या पशु या सर्प आदि के रूप में अवस्थित हो जाती है। जो अनुमान उपस्थित किया गया है वह यह है कि श्राद्ध में जो अन्न-पान दिया जाता है, वह पितरों के उपयोग के लिए विभिन्न द्रव्यों में परिवर्तित हो जाता है। इस व्यवस्था को स्वीकार करने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि पितृगण विभिन्न स्थानों में मर सकते हैं और श्राद्ध बहुधा उन स्थानों से दूर ही स्थान पर किया जाता है। ऐसा मानना क्लिष्ट कल्पना है कि जहाँ दुष्कर्मों के कारण कोई पितर पशु रूप में परिवर्तित हो गये हैं, ऐसे स्थान विशेष में उगी हुई घास वही है, जो सैकड़ों कोस दूर श्राद्ध में किये गये द्रव्यों के कारण उत्पन्न हुई है। इतना ही नहीं, यदि एक या सभी पितर पशु आदि में परिवर्तित हो गये हैं, तो किस प्रकार अपनी सन्तानों को आयु, धन आदि दे सकते हैं ? यदि यह कार्य वसु, रुद्र एवं आदित्य करते हैं तो सीधे तौर पर यह कहना चाहिए कि पितर लोग अपनी सन्तति को कुछ भी नहीं दे सकते।

श्राद्ध में खीर-पूरी का महत्त्व

श्राद्ध के दौरान पंडितों को खीर-पूरी खिलाने का महत्त्व होता है।

  1. माना जाता है कि इससे स्वर्गीय पूर्वजों की आत्मा तृप्त होती है। पुरुष के श्राद्ध में ब्राह्मण को तथा स्त्री के श्राद्ध में ब्राह्मण महिला को भोजन कराया जाता है।
  2. लोग अपनी श्रद्धा अनुसार खीर-पूरी तथा सब्जियाँ बनाकर उन्हें भोजन कराते हैं तथा बाद में वस्त्र व दक्षिणा देकर व पान खिलाकर विदा करते हैं।
  3. सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने पूर्वज का चित्र रखकर पंडित नियमपूर्वक पूजा व संकल्प कराते हैं। इस दिन बिना प्याज व लहसुन का भोजन तैयार किया जाता है।
  4. बाद में पंडित व पंडिताइन के श्रद्धापूर्वक पैर छूकर उन्हें भोजन कराते हैं। भोजन में खीर-पूरी व पनीर, सीताफल, अदरक व मूली का लच्छा तैयार किया जाता है। उड़द की दाल के बड़े बनाकर दही में डाले जाते हैं।
  5. पंडित सर्वप्रथम गाय का नैवेद्य निकलवाते हैं।इसके अलावा कौओं व चिड़िया, कुत्ते के लिए भी ग्रास निकालते हैं।
  6. पितृ अमावस्या को आख़िरी श्राद्ध करके पितृ विसर्जन किया जाता है तथा पितरों को विदा किया जाता है।

कई जगहों पर अमावस्या के दिन पंडित बहुत कम मिलते हैं क्योंकि एक धारणा यह है कि श्राद्ध का भोजन या तो कुल पंडित या किसी ख़ास ब्राह्मण को कराया जाता है। कई जगह व्यस्त होने के चलते भी पंडितों की कमी रहती है। मान्यता है कि ब्राह्मणों को खीर-पूरी खिलाने से पितृ तृप्त होते हैं। यही वजह है कि इस दिन खीर-पूरी ही बनाई जाती है।

पितृपक्ष मे विशेष

  • श्राद्ध पक्ष को 16 श्राद्ध कहा जाता है, जो भाद्रपद माह की पूर्णिमा से प्रारंभ होता है तथा पूरे 16 दिन आश्विन की अमावस तक माना जाता है। इन 16 दिन श्राद्ध-तर्पण इत्यादि कार्य किए जाते हैं।
  • पूर्णिमा को ऋषियों के निमित्त श्राद्ध, नवमी को सौभाग्यवती स्त्री के लिए, द्वादशी को यतियों, संन्यासियों के निमित्त, चतुर्दशी को शस्‍त्राघात से मृतकों के लिए श्राद्ध, अमावस को जिनकी तिथि नहीं मालूम हो, उनके लिए श्राद्ध किया जाता है।
  • जिनकी मृत्यु हुई, उनकी मृत्यु के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष उन्हें पितृ में मिलाया जाता है। जिस तिथि को मृत्यु हुई, उसी तिथि को यह कार्य किया जाता है, भले ही मृत्यु किसी भी पक्ष में हुई हो।
  • शास्त्रों के अनुसार जिनकी मृत्यु दुर्घटना, अस्त्र या शस्त्र, विष से मृत्यु, आत्महत्या, जलकर, डूबकर , गिरने से, अचानक मृत्यु होना (चाहे किसी भी रूप मे हुई हो) आदि का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।इसके अतिरिक्त जिन व्यक्तियों की अचानक मृत्यु हो गई हो और उनकी भी तिथि के बारे में पता नहीं है तब उनका श्राद्ध भी चतुर्दशी के दिन किया जाता है।
  • चतुर्दशी के दिन अगर किसी की साधारण मृत्यु हुई हो तो उसका श्राद्ध चतुर्दशी को न करते हुए, त्रयौदशी अथवा अमावस्या के दिन ही करना चाहिए। यह निर्णय केवल पितृपक्ष के लीए ही कहे गये हैं।

श्राद्ध के नियम

दैनिक पंच यज्ञों में पितृ यज्ञ को ख़ास बताया गया है। इसमें तर्पण और समय-समय पर पिण्डदान भी सम्मिलित है।

पूरे पितृपक्ष भर तर्पण आदि करना चाहिए।

इस दौरान कोई अन्य शुभ कार्य या नया कार्य अथवा पूजा-पाठ अनुष्ठान सम्बन्धी नया काम नहीं किया जाता। साथ ही श्राद्ध नियमों का विशेष पालन करना चाहिए।

परन्तु नित्य कर्म तथा देवताओं की नित्य पूजा जो पहले से होती आ रही है, उसको बन्द नहीं करना चाहिए।

श्राद्ध-कर्म की संक्षिप्त विधि

श्राद्ध दिवस से पूर्व दिवस को बुद्धिमान पुरुष श्रोत्रिय आदि से विहित ब्राह्मणों को पितृ-श्राद्ध तथा ‘वैश्व-देव-श्राद्ध’ के लिए निमंत्रित करें।

पितृ-श्राद्ध के लिए सामर्थ्यानुसार अयुग्म तथा वैश्व-देव-श्राद्ध के लिए युग्म ब्राह्मणों को निमंत्रित करना चाहिए।

निमंत्रित तथा निमंत्रक क्रोध, स्त्रीगमन तथा परिश्रम आदि से दूर रहे।

प्राचीन प्रथा

प्रतीत होता है कि श्राद्ध द्वारा पूजा-अर्चना प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो कि व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों का त्यों रख लिया है। इससे व्यक्ति अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर लेता है जो जीवितावस्था में अपने प्रिय थे।

आर्यसमाज श्राद्ध प्रथा का विरोध करता है और ऋग्वेद में उल्लिखित पितरों को वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले जीवित लोगों के अर्थ में लेता है। यह ज्ञातव्य है कि वैदिक उक्तियाँ दोनों सिद्धान्तों का पालन करती है।

शतपथ ब्राह्मण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यज्ञकर्ता के पिता को दिया गया भोजन इन शब्दों में कहा जाता है–यह तुम्हारे लिये है। विष्णु पुराण में आया है–वह, जिसका पिता मृत हो गया हो, अपने पिता के लिए पिण्ड रख सकता है। मनु स्मृति ने कहा है कि पिता वसु, पितामह रुद्र एवं आदित्य कहे गये हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति ने यह व्यवस्था दी है कि वसु, रुद्र एवं आदित्य पित हैं और श्राद्ध के अधिष्ठाता देवता हैं। इस अन्तिम कथन का उद्देश्य है कि पितरों का ध्यान वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में करना चाहिए।

ग्रन्थों के अनुसार

  1. पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर ही आदिम अवस्था के लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा महत्ता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था कि पितर लोग जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं। आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थीं अथवा जो उत्सव किये जाते थे, वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गये हैं। प्राक्-वैदिक साहित्य में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं।
  2. बौधायन धर्मसूत्र ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं। यही बात औशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही है।
  3. वायु पुराण में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं।
  4. मनु एवं औशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं।
  5. मत्स्यपुराण ने व्यवस्था दी है कि मृत्यु के उपरान्त को पितर को 12 दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे संतोष देते हैं। अत: आत्मा मृत्यु के उपरान्त 12 दिनों तक अपने आवास को नहीं त्यागती। अत: 10 दिनों तक दूध (और जल) ऊपर टांग देना चाहिए। जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)।
  6. विष्णु धर्मसूत्र में आया है–मृतात्मा श्राद्ध में स्वधा के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में रसास्वादन करता है चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के रूप में हो, या नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो), या निम्न पशुओं की में हो, या मानव रूप में हो, सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास पहुँचता है जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता दोनों को तेज़ या सम्पत्ति या समृद्धि प्राप्त होती है।

पाँच भाग

ब्रह्म पुराण के मत से श्राद्ध का वर्णन पाँच भागों में किया जाना चाहिए। कैसे, कहाँ, कब, किसके द्वारा एवं किन सामग्रियों द्वारा। किन्तु इन पाँच प्रकारों के विषय में लिखने के पूर्व में हमें पितर शब्द की अन्तर्निहित आदकालीन विचारधारा पर प्रकाश डाल लेना चाहिए। हमें यह देखना है कि अत्यन्त प्राचीन काल में (जहाँ तक हमें साहित्य प्रकाश मिल पाता है) इस शब्द के विषय में क्या दृष्टिकोण था और इसकी क्या महत्ता थी।

पितृ का अर्थ

पितृ का अर्थ है पिता, किन्तु पितर शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है:-

व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज

मानव जाति के प्रारम्भ या प्राचीन पूर्वज जो एक पृथक लोक के अधिवासी के रूप में कल्पित हैं।

दूसरे अर्थ के लिए ऋग्वेद में उल्लेख है वह सोम जो कि शक्तिशाली होता चला जाता है और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाता है, जो तानने वाले से तान दिया जाता है, जो धारा में बहता है, प्रकाशमान (सूर्य) द्वारा जिसने हमारी रक्षा की – वह सोम, जिसकी सहायता से हमारे पितर लोगों ने एक स्थान को एवं उच्चतर स्थलों को जानते हुए गौओं के लिए पर्वत को पीड़ित किया।

ऋग्वेद में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं। वे प्राचीन, पश्चात्यकालीन एवं उच्चतर कहे गये हैं। वे सभी अग्नि को ज्ञात हैं, यद्यपि सभी पितृगण अपने वंशजों को ज्ञात नहीं हैं।

वे कई श्रेणियों में विभक्त हैं, यथा–अंगिरस्, वैरूप, भृगु, नवग्व एवं दशग्व अंगिरस् लोग यम से सम्बन्धित हैं, दोनों को यज्ञ में साथ ही बुलाया जाता है।

ऋग्वेद में ऐसा कहा गया है–जिसकी (इन्द्र की) सहायता से हमारे प्राचीन पितर अंगिरस्, जिन्होंने उसकी स्तुति-वन्दना की और जो स्थान को जानते थे, गौओं का पता लगा सके।

अंगिरस् पितर लोग स्वयं दो भागों में विभक्त थे नवग्व एवं दशग्व। कई स्थानों पर पितर लोग सप्त ऋषियों जैसे सम्बोधित किये गये हैं और कभी-कभी नवग्व एवं दशग्व भी सप्त ऋषि कहे गये हैं।

अंगिरस् लोग अग्नि एवं स्वर्ग के पुत्र कहे गये हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं।

वे सोमप्रेमी होते हैं, वे कुश पर बैठते हैं, वे अग्नि एवं इन्द्र के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाती हैं। जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाती है।

पश्चात्कालीन ग्रन्थों में भी, यथा मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न करते हुए व्यक्त किया गया है, यथा–देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी।

ऐसा माना गया है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है।

मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत् कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाए।

यद्यपि ऋग्वेद में यम की दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त के मत से वह मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है।

अथर्ववेद का कथन है–हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथ्वी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें।

ऋग्वेद में आया है–तीन लोक हैं दो (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथ्वी) सविता की गोद में हैं, एक (अर्थात् मध्यम लोक) यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं। महान प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है।

तैत्तिरीय ब्राह्मण में ऐसा आया है कि पितर इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भुलोक एवं अंतरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक वर्णित हैं। ऋग्वेद में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया, या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है। किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।

पितरों की की अन्य श्रेणियाँ भी है,, विस्तारभय से उसका उल्लेख फिर कभी,,,,

माघ मास मे क्या करें और क्या ना करें?

माघ मास के कृत्य (कार्य)

सम्पूर्ण माघ में तीर्थ स्नान न कर पाने की स्थिति में माघी पूर्णिमा से पूर्व तीन दिनों में विधि पूर्वक स्नान करें । 

 माघ में प्रयाग स्नान का महात्म्य – पृथ्वी पर माघ मास में मात्र तीन दिन प्रयाग स्नान करने मात्र से भी १ हजार अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है ।   …

दीपावली त्यौहार पाँच दिनों तक मानाया जाता है। प्रत्येक दिनों में अलग-अलग पांच कृत्य होते हैं। आइए जानते हैं किस दिन क्या होता है।

हिन्दुओं का प्रमुख पर्व- दीपावली

     दीपावली त्यौहार पाँच दिनों तक मानाया जाता है । प्रत्येक दिनों में अलग-अलग पांच कृत्य होते हैं। आइए जानते हैं किस दिन क्या होता है। यह कार्तिक कृष्णपक्ष त्रयोदशी से शुक्लपक्ष की द्वितीया पर्यन्त मनाया जाता है ।

          1- दीपावली पर्व को दीपमालिका दिवाली भी कहा जाता है । यह हिन्दुओं के चार प्रमुख त्यौहारों मे से एक है। वर्णभेद के अनुसार यह वैश्यवर्ग में आता है किन्तु सभी वर्ग के लोग इसे उत्साहपूर्वक मनाते हैं । यह सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है ।


    2- दीपमालिका कार्तिक मास की अमावस्या को मनायी जाती है। इस अवसर पर घरों की सफाई एवं सजावट होती है तथा रात्रि में दीपदान होता है । दीपों की मालायें सजायी जाती है इसीलिये इसका एक नाम दीपमालिका पर्व भी है । इस दिन कुबेर , महालक्ष्मी तथा सिद्धिदाता गणेश की पूजा होती है । 

हर ब्लाक में होगा अटल टिंकरिंग लैब

Guidelines for setting up ‘Atal Tinkering Labs’

     स्कूली बच्चों में शोध और इनोवेशन के प्रति रुझान बढ़ाने की मुहिम अब और तेज होगी। इसके तहत प्रत्येक ब्लाक में कम से कम एक अटल टिंकरिंग लैब स्थापित की जाएगी। फिलहाल 2020 तक ही इस काम को पूरा करने का लक्ष्य रखा है, जिसमें करीब दस हजार लैब स्थापित करने की योजना है। इसके साथ ही स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी अब इस मुहिम से जोड़ा जाएगा। भारत सरकार ने NITI Aayog में अटल इनोवेशन मिशन (AIM) की स्थापना की है। वैज्ञानिक गुस्सा पैदा करने और युवा दिमागों के बीच जिज्ञासा और नवीनता की भावना पैदा करने की आवश्यकता को महसूस करते हुए, एआईएम अटल टिंकरिंग लैबोरेटरीज (एटीएल) के नेटवर्क की स्थापना का समर्थन करने का प्रस्ताव करता है। ATL एक ऐसा कार्यक्षेत्र है जहाँ युवा मन अपने विचारों को हाथों-हाथ करते हैं और अपने आप को नया स्वरूप देते हैं और नवाचार कौशल सीखते हैं। यह दृष्टि ‘भारत में 1 मिलियन बच्चों को Neoteric1 इनोवेटर्स’ के रूप में प्रस्तुत करना है। …