Stories कथा – दृष्टान्त

माँ दुर्गा के 51 शक्तिपीठों का संक्षिप्त विवरण

हिंदू धर्म में पुराणों का विशेष महत्‍व है। इन्‍हीं पुराणों में माता के शक्‍तिपीठों का भी वर्णन है। पुराणों की ही मानें तो जहां जहां देवी सती के अंग के टुकड़े वस्‍त्र और आभूषण गिरे वहां वहां मां के शक्‍तिपीठ बन गए। ये शक्तिपीठ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैले हैं। देवी भागवत में 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र है। वहीं देवी पुराण में 51 शक्तिपीठ बताए गए हैं।

आइए जानें कहांकहां हैं ये शक्तिपीठ

  1. किरीट शक्तिपीठ
    पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है किरीट शक्तिपीठ, जहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं। इस स्थान पर सती के ‘किरीट (शिरोभूषण या मुकुट)’ का निपात हुआ था। कुछ विद्वान मुकुट का निपात कानपुर के मुक्तेश्वरी मंदिर में मानते हैं।
  2. कात्यायनी पीठ
    वृन्दावन मथुरा में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं। यहाँ माता सती ‘उमा’ तथा भगवन शंकर ‘भूतेश’ के नाम से जाने जाते है।
  3. करवीर शक्तिपीठ
    महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित ‘महालक्ष्मी’ अथवा ‘अम्बाईका मंदिर’ ही यह शक्तिपीठ है। यहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति ‘महिषामर्दिनी’ तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है।
  4. श्री पर्वत शक्तिपीठ
    यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं। कुछ विद्वान इसे लद्दाख (कश्मीर) में मानते हैं, तो कुछ असम के सिलहट से 4 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) में जौनपुर में मानते हैं। यहाँ सती के ‘दक्षिण तल्प’ (कनपटी) का निपात हुआ था।
  5. विशालाक्षी शक्तिपीठ
    उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं। यहाँ माता सती का ‘कर्णमणि’ गिरी थी। यहाँ माता सती को ‘विशालाक्षी’ तथा भगवान शिव को ‘काल भैरव’ कहते है।
  6. गोदावरी तट शक्तिपीठ
    आंध्र प्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहाँ माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं। गोदावरी तट शक्तिपीठ आन्ध्र प्रदेश देवालयों के लिए प्रख्यात है। वहाँ शिव, विष्णु, गणेश तथा कार्तिकेय (सुब्रह्मण्यम) आदि की उपासना होती है तथा अनेक पीठ यहाँ पर हैं। यहाँ पर सती के ‘वामगण्ड’ का निपात हुआ था।
  7. शुचींद्रम शक्तिपीठ
    तमिलनाडु में कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुचींद्रम शक्तिपीठ, जहाँ सती के ऊर्ध्वदंत (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं। यहाँ माता सती के ‘ऊर्ध्वदंत’ गिरे थे। यहाँ माता सती को ‘नारायणी’ और भगवान शंकर को ‘संहार’ या ‘संकूर’ कहते है। तमिलनाडु में तीन महासागर के संगम-स्थल कन्याकुमारी से 13 किमी दूर ‘शुचीन्द्रम’ में स्याणु शिव का मंदिर है। उसी मंदिर में ये शक्तिपीठ है।
  8. पंच सागर शक्तिपीठ
    इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता के नीचे के दांत गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं। पंच सागर शक्तिपीठ में सती के ‘अधोदन्त’ गिरे थे। यहाँ सती ‘वाराही’ तथा शिव ‘महारुद्र’ हैं।
  9. ज्वालामुखी शक्तिपीठ
    हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं। यह ज्वालामुखी रोड रेलवे स्टेशन से लगभग 21 किमी दूर बस मार्ग पर स्थित है। यहाँ माता सती ‘सिद्धिदा’ अम्बिका तथा भगवान शिव ‘उन्मत्त’ रूप में विराजित है। मंदिर में आग के रूप में हर समय ज्वाला धधकती रहती है।
  10. हरसिद्धि शक्तिपीठ
    (उज्जयिनी शक्तिपीठ) इस शक्तिपीठ की स्थिति को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ उज्जैन के निकट शिप्रा नदी के तट पर स्थित भैरवपर्वत को, तो कुछ गुजरात के गिरनार पर्वत के सन्निकट भैरवपर्वत को वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं। अत: दोनों ही स्थानों पर शक्तिपीठ की मान्यता है। उज्जैन के इस स्थान पर सती की कोहनी का पतन हुआ था। अतः यहाँ कोहनी की पूजा होती है।
  11. अट्टहास शक्तिपीठ
    अट्टाहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर (लामपुर) रेलवे स्टेशन वर्धमान से लगभग 95 किलोमीटर आगे कटवा-अहमदपुर रेलवे लाइन पर है, जहाँ सती का ‘नीचे का ह

श्रावण मास एवं श्रावण सोमवार में करें भगवान शिव जी का राशि अनुसार पूजन होंगे अत्‍यंत प्रसन्‍न।।

श्रावण महीने एवं श्रावण मास के सोमवार में श‍िवजी की पूजा का व‍िशेष महत्‍व माना गया है, इस समय आप अपनी राश‍ि के अनुसार भोलेनाथ जी की पूजा करें तो श‍िवजी अत्‍यंत प्रसन्‍न होते हैं आचार्य धीरज द्विवेदी “याज्ञिक” जी ने बताया कि इस वर्ष श्रावण माह 25 जुलाई से प्रारंभ हो रहा हैं, इस सावन मास में राश‍ि अनुसार महाकाल जी की पूजा से मनोवांछित सभी कामनाओं की पूर्ति होती है, तो आइए जानते हैं क‍ि क‍िस राशि वालों को भोले शंकर की क‍िस तरह आराधना करनी चाहिए….


१:- मेष राशि :- मेष राश‍ि के जातकों को भगवान शिव जी का अभिषेक गाय के कच्चे दूध में शहद मिलाकर करना चाहिए। तथा चंदन और सफेद पुष्‍प चढ़ाने चाहिए। इसके बाद श्रद्धानुसार 11, 21, 51 और 108 बार ‘ऊं नमः शिवाय’ मंत्र का जप करना चाहिए।ऐसा करने से भोले बाबा समस्‍त मनोकामनाएं पूरी करते हैं।


२:- वृष राशि :- वृष राश‍ि के जातकों को श‍िव शंकर का दही से अभिषेक करना चाहिए। दही से अभिषेक करने से जातक को धन, पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होने का योग बनता है। इसके अलावा सफेद फूल तथा बेलपत्र चढ़ाने चाहिए।इससे जीवन की सभी समस्‍याओं का हल म‍िलने लगता है.!


३:- मिथुन राशि :- मिथुन राश‍ि के जातकों को भोलेनाथ का गन्ने के रस से अभिषेक करना चाहिए। मान्‍यता है सावन भर प्रत‍िद‍िन गन्‍ने के रस से अभिषेक करने से भोलेनाथ जल्‍दी ही सारी मनोकामनाएं पूरी कर देते हैं। इसके अलावा इस राशि के जातकों को श‍िवजी को धतूरा पुष्प,तथा बेलपत्र अर्पित करना चाहिए। शिव चालीसा का पाठ भी करना चाहिए.!


४:-कर्क राशि :- कर्क राशि के जातकों को भोलेनाथ का दूध में शक्कर मिलाकर अभिषेक करना चाहिए। इससे मन शांत होता है और शुभ कार्यों को करने की प्रेरणा म‍िलती है। इसके साथ ही मंदार के श्वेत फूल,धतूरा पुष्प और बेलपत्र भी शिवजी को अर्पित करना चाहिए। साथ ही रुद्राष्टक का पाठ करना भी शुभ होगा।


५:- सिंह राशि :- सिंह राशि के जातकों को भोलेनाथ का मधु अथवा गुड़ युक्त जल से अभिषेक करना चाहिए। भगवान शिव को कनेर का पुष्प तथा लाल रंग का चंदन अर्पित करना चाहिए। गुड़ और चावल से बनी खीर चढ़ा सकते हैं। यह अत्‍यंत शुभ होता है। सूर्योदय के समय श‍िवजी की पूजा करने से सभी इच्‍छाओं की पूर्ति जल्‍दी होती है। महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। इससे सेहत संबंधी सभी समस्‍याएं दूर हो जाती हैं।


६:- कन्या राशि :- कन्‍या राशि के जातकों को शंभूनाथ का गन्‍ने के रस से अभिषेक करना चाहिए। इसके अलावा शिवजी को दुर्वा,पान तथा बेलपत्र चढ़ाएं। ‘ऊं नमः शिवाय मंत्र’ का जप करें। शीघ्र ही मनोकामनाएं पूर्ण होगी। शिव चालीसा का पाठ करना भी बेहतर होगा।


७:- तुला राशि :- तुला राशि के जातकों को भगवान शिव का गाय के घी, इत्र या सुगंधित तेल या फिर मिश्री मिले दूध से अभिषेक करना चाहिए। सफेद फूल भी पूजा में शिवजी को चढ़ाने चाहिए। दही, शहद अथवा श्रीखंड का प्रसाद चढ़ाना चाहिए। भगवान शिव के सहस्त्रनाम का जाप करने से जीवन में सुख-समृद्धि तथा लक्ष्मी का आगमन होगा।


८:- वृश्चिक राशि :- वृश्चिक राशि के जातकों को पंचामृत अथवा शहद युक्त जल से भगवान शिव जी का अभिषेक करना चाहिए। लाल फूल, लाल चंदन भी शिवजी को चढ़ाने चाहिए। बेलपत्र अथवा बेल के पौधे की जड़ चढ़ाने से भी कार्यों में सफलता मिलती है। रूद्राष्टक का पाठ करना भी श्रेयस्कर रहेगा।


९:- धनु राशि :- धनु राशि के जातकों को भोलेनाथ का दूध में हल्दी अथवा पीला चंदन मिलाकर अभिषेक करना चाहिए। इसके अलावा पीले रंग के फूलों या फिर गेंदे के फूल चढ़ाने चाहिए। खीर का भोग लगाना भी शुभ रहेगा ॐ नमः शिवाय का जप और श‍िव चालीसा का पाठ करना चाहिए।


१०:-मकर राशि :- मकर राशि के जातकों को भोलेशंकर का फल के रस से अथवा गंगा जल से अभिषेक करना चाहिए। ऐसा करने से जातक को सभी कामों में सफलता मिलेगी। त्रयंबकेश्वर का ध्यान करते हुए भगवान शिव जी को बेलपत्र, धूतरा पुष्प, शमी के फूल, अष्टगंध अर्पित करने चाहिए। उड़द से बनी मिठाई का भोग लगाने से शनि की पीड़ा समाप्त होती है। नीले कमल का फूल भी भगवान को अवश्य चढ़ाएं।


११:- कुंभ राशि :- कुंभ राशि के जातकों को सावन महीने में शंकर भगवान को प्रत‍िद‍िन यक्ष कर्दम के रस से, सरसों के तेल अथवा तिल के तेल से भगवान शिव का अभिषेक करना चाहिए। इसके अलावा शिवाष्टाक का पाठ करना चाहिए। इससे जातकों के बिगड़े काम बनेंगे। साथ ही धन-समृद्धि में वृद्धि होगी। शमी के फूल पूजा में अर्पित करें। शिवजी की कृपा से यह शनि पीड़ा को कम करता है।


१२:- मीन राशि :- मीन राशि के जातकों को सावन भर भोलेनाथ का केसर मिश्रित जल से जलाभिषेक करना चाहिए। इसके अलावा शंकरजी की पूजा में पंचामृत, दही, दूध और पीले पुष्पों का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही ‘ॐ नमः शिवाय का जप करना चाहिए। शिव चालीसा का पाठ करना भी शुभ रहेगा। इससे जीवन की सारी समस्या दूर हो जाती है।


आचार्य धीरज द्विवेदी “याज्ञिक”
(ज्योतिष शास्त्र, वास्तुशास्त्र, एवं वैदिक अनुष्ठानों के विशेषज्ञ)

शमी (खेजड़ी) वृक्ष का महत्त्व एवं पूजन विधि


शमी वृक्ष की पूजा करने के नियम
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स्नानोपरांत साफ कपड़े धारण करें। फिर प्रदोषकाल में शमी के पेड़ के पास जाकर सच्चे मन से प्रमाण कर उसकी जड़ को गंगा जल, नर्मदा का जल या शुद्ध जल चढ़ाएं। उसके बाद तेल या घी का दीपक जलाकर उसके नीचे अपने शस्त्र रख दें।
फिर पेड़ के साथ शस्त्रों को धूप, दीप, मिठाई चढ़ाकर आरती कर पंचोपचार अथवा षोडषोपचार पूजन करें। साथ ही हाथ जोड़ कर सच्चे मन से यह प्रार्थना करें।

‘शमी शम्यते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी।।
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता।।’

इसका अर्थ है- हे शमी वृक्ष आप पापों को नाश और दुश्मनों को हराने वाले है। आपने ही शक्तिशाली अर्जुन का धनुश धारण किया था। साथ ही आप प्रभु श्रीराम के अतिप्रिय है। ऐसे में आज हम भी आपकी पूजा कर रहे हैं। हम पर कृपा कर हमें सच्च व जीत के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दें। साथ ही हमारी जीत के रास्ते पर आने वाली सभी बांधाओं को दूर कर हमें जीत दिलाए।

यह प्रार्थना करने के बाद अगर आपको पेड़ के पास कुछ पत्तियां गिरी मिलें तो उसे प्रसाद के तौर पर ग्रहण करें। साथ ही बाकी की पत्तियों को लाल रंग के कपड़े में बांधकर हमेशा के लिए अपने पास रखें। इससे आपके जीवन की परेशानियां दूर होने के साथ दुश्मनों से छुटकारा मिलेगा। इस बात का खास ध्यान रखें कि आपकी पेड़ से अपने आप गिरी पत्तियां उठानी है। खुद पेड़ से पत्तों को तोड़ने की गलती न करें।

शमी वृक्ष के गुण एवं महत्त्व
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शमी को गणेश जी का प्रिय वृक्ष माना जाता है और इसकी पत्तियाँ गणेश जी की पूजा में भी चढ़ाई जाती हैं। जिसमें शिव का वास भी माना गया है, जो श्री गणेश के पिता हैं और मानसिक क्लेशों से मुक्ति देने वाले देव हैं। यही कारण है कि शमी पत्र का चढ़ावा श्री गणेश की प्रसन्नता से बुद्धि को पवित्र कर मानसिक बल देने वाला माना गया है। अगर आप भी मन और परिवार को शांत और सुखी रखना चाहते हैं तो नीचे बताए विशेष मंत्र से श्री गणेश को शमी पत्र अर्पित करें –

त्वत्प्रियाणि सुपुष्पाणि कोमलानि शुभानि वै।
शमी दलानि हेरम्ब गृहाण गणनायक।।

शमी भगवान श्री राम का प्रिय वृक्ष था और लंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा कर के उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। आज भी कई स्थानों पर ‘रावण दहन’ के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते स्वर्ण के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को बाँटने की प्रथा हैं, इसके साथ ही कार्यों में सफलता मिलने कि कामना की जाती है।

शमी शमयते पापं शमी शत्रु विनाशिनी।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी।।
करिष्यमाणयात्राया यथाकालं सुखं मया।
तत्र निर्विघ्न कर्तृत्वं भवश्रीरामपूजिता।।

शमी पापों का नाश करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले है.अर्जुन का धनुष धारण करने वाले ; श्रीराम को प्रिय है.जिस तरह श्रीराम ने आपकी पूजा करी , हम भी करते है. अच्छाई की जीत में आने वाली सभी बाधाओं को दूर कर उसे सुखमय बना देते है।

यह वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है।

इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है।

इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है।

वराहमिहिर के अनुसार जिस साल शमीवृक्ष ज्यादा फूलता-फलता है उस साल सूखे की स्थिति का निर्माण होता है। विजयादशमी के दिन इसकी पूजा करने का एक तात्पर्य यह भी है कि यह वृक्ष आने वाली कृषि विपत्ती का पहले से संकेत दे देता है जिससे किसान पहले से भी ज्यादा पुरुषार्थ करके आनेवाली विपत्ती से निजात पा सकता है।

अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।

इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।

पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं।

शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।

शमी शनि ग्रह का पेड़ है. राजस्थान में सबसे अधिक होता है . छोटे तथा मोटे काँटों वाला भारी पेड़ होता है.

कृष्ण जन्मअष्टमी को इसकी पूजा की जाती है . बिस्नोई समाज ने इस पेड़ के काटे जाने पर कई लोगों ने अपनी जान दे दी थी।

कहा जाता है कि इसके लकड़ी के भीतर विशेष आग होती है जो रगड़ने पर निकलती है. इसे शिंबा; सफेद कीकर भी कहते हैं।

घर के ईशान में आंवला वृक्ष, उत्तर में शमी (खेजड़ी), वायव्य में बेल (बिल्व वृक्ष) तथा दक्षिण में गूलर वृक्ष लगाने को शुभ माना गया है।

कवि कालिदास ने शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या कर के ही ज्ञान की प्राप्ति की थी।

ऋग्वेद के अनुसार आदिम काल में सबसे पहली बार पुरुओं ने शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही आग पैदा की थी।

कवियों और लेखकों के लिये शमी बड़ा महत्व रखता है। भगवान चित्रगुप्त को शब्दों और लेखनी का देवता माना जाता है और शब्द-साधक यम-द्वितीया को यथा-संभव शमी के पेड़ के नीचे उसकी पत्तियों से उनकी पूजा करते हैं।

नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा भी शमी वृक्ष के पत्तों से करने का शास्त्र में विधान है। इस दिन शाम को वृक्ष का पूजन करने से आरोग्य व धन की प्राप्ति होती है।कहते है एक आक के फूल को शिवजी पर चढ़ाना से सोने के दान के बराबर फल देता है , हज़ार आक के फूलों कि अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों के चढाने कि अपेक्षा एक बिल्व-पत्र से मिल जाता है। हजार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी। हजार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हजार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हजार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हजार शमी के पत्तो के बराबर एक नीलकमल, हजार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हजार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है। इसलिए भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए एक शमी का पुष्प चढ़ाएं क्योंकि यह फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।

इसमें औषधीय गुण भी है. यह कफनाशक ,मासिक धर्म की समस्याओं को दूर करने वाला और प्रसव पीड़ा का निवारण करने वाला पौधा है. शन्नोदेवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये
शन्नोदेवीरभीष्टय

शमी पोधे की पूजा करने से आपको क्या क्या लाभ मिलता है।
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शमी शनिदेव को प्रिय है इसलिए शमी की पूजा सेवा करने से शनि की कृपा प्राप्त होती है और समस्त संकटों का नाश होता है।

आइये जानते हैं शमी के पौधे के क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं:
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यदि परिवार में धन का अभाव बना हुआ है। खूब मेहनत करने के बाद भी धन की कमी है और खर्च अधिक है तो किसी शुभ दिन शमी का पौधा खरीदकर घर ले आएं। शनिवार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर नए गमले में शुद्ध मिट्टी भरकर शमी का पौधा लगा दें। इसके बाद शमी पौधे की जड़ में एक पूजा की सुपारी. अक्षत पौधे पर गंगाजल अर्पित करें और पूजन करें। पौधे में रोज पानी डालें और शाम के समय उसके समीप एक दीपक लगाएं। आप स्वयं देखेंगे धीरे-धीरे आपके खर्च में कमी आने लगेगी और धन संचय होने लगेगा।

शनिवार को शाम के समय शमी के पौधे के गमले में पत्थर या किसी भी धातु का एक छोटा सा शिवलिंग स्थापित करें। शिवलिंग पर दूध अर्पित करें और विधि-विधान से पूजन करने के बाद महामृत्युंजय मंत्र की एक माला जाप करें। इससे स्वयं या परिवार में किसी को भी कोई रोग होगा तो वह ल्दी ही दूर हो जाएगा।

कई सारे युवक-युवतियों के विवाह में बाधा आती है। विवाह में बाधा आने का एक कारण जन्मकुंडली में शनि का दूषित होना भी है। किसी भी शनिवार से प्रारंभ करते हुए लगातार 45 दिनों तक शाम के समय शमी के पौधे में घी का दीपक लगाएं और सिंदूर से पूजन करें। इस दौरान अपने शीघ्र विवाह की कामना व्यक्त करें। इससे शनि दोष समाप्त होगा और विवाह में आ रही बाधाएं समाप्त होंगी।

जन्मकुंडली में यदि शनि से संबंधित कोई भी दोष है तो शमी के पौधे को घर में लगाना और प्रतिदिन उसकी सेवा-पूजा करने से शनि की पीड़ा समाप्त होती है।

जिन लोगों को शनि की साढ़े साती या ढैया चल रहा हो उन्हें नियमित रूप से शमी के पौधे की देखभाल करना चाहिए। उसमें रोज पानी डालें, उसके समीप शाम के समय दीपक लगाएं। शनिवार को पौधे में थोड़े से काले तिल और काले उड़द अर्पित करें। इससे शनि की साढ़ेसाती का दुष्प्रभाव कम होता।

यदि आप बार-बार दुर्घटनाग्रस्त हो रहे हों तो शमी के पौधे के नियमित दर्शन से दुर्घटनाएं रुकती हैं।

श्रीमहाकाल भैरवाष्टक….

यं यं यं यक्षरूपं दशदिशिविदितं भूमिकम्पायमानं
सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुटजटा शेखरंचन्द्रबिम्बम् ।
दं दं दं दीर्घकायं विक्रितनख मुखं चोर्ध्वरोमं करालं
पं पं पं पापनाशं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥

रं रं रं रक्तवर्णं, कटिकटिततनुं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालं
घं घं घं घोष घोषं घ घ घ घ घटितं घर्झरं घोरनादम् ।
कं कं कं कालपाशं द्रुक् द्रुक् दृढितं ज्वालितं कामदाहं
तं तं तं दिव्यदेहं, प्रणामत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥

लं लं लं लं वदन्तं ल ल ल ल ललितं दीर्घ जिह्वा करालं
धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकटमुखं भास्करं भीमरूपम् ।
रुं रुं रुं रूण्डमालं, रवितमनियतं ताम्रनेत्रं करालम्
नं नं नं नग्नभूषं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥

वं वं वायुवेगं नतजनसदयं ब्रह्मसारं परन्तं
खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवनविलयं भास्करं भीमरूपम् ।
चं चं चलित्वाऽचल चल चलिता चालितं भूमिचक्रं
मं मं मायि रूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ४॥

शं शं शं शङ्खहस्तं, शशिकरधवलं, मोक्ष सम्पूर्ण तेजं
मं मं मं मं महान्तं, कुलमकुलकुलं मन्त्रगुप्तं सुनित्यम् ।
यं यं यं भूतनाथं, किलिकिलिकिलितं बालकेलिप्रदहानं
आं आं आं आन्तरिक्षं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ५॥

खं खं खं खड्गभेदं, विषममृतमयं कालकालं करालं
क्षं क्षं क्षं क्षिप्रवेगं, दहदहदहनं, तप्तसन्दीप्यमानम् ।
हौं हौं हौंकारनादं, प्रकटितगहनं गर्जितैर्भूमिकम्पं
बं बं बं बाललीलं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ६॥

वं वं वं वाललीलं सं सं सं सिद्धियोगं, सकलगुणमखं,
देवदेवं प्रसन्नं पं पं पं पद्मनाभं, हरिहरमयनं चन्द्रसूर्याग्नि नेत्रम् ।
ऐं ऐं ऐं ऐश्वर्यनाथं, सततभयहरं, पूर्वदेवस्वरूपं
रौं रौं रौं रौद्ररूपं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ७॥

हं हं हं हंसयानं, हसितकलहकं, मुक्तयोगाट्टहासं, ?
धं धं धं नेत्ररूपं, शिरमुकुटजटाबन्ध बन्धाग्रहस्तम् ।
तं तं तंकानादं, त्रिदशलटलटं, कामगर्वापहारं,
भ्रुं भ्रुं भ्रुं भूतनाथं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ८॥

इति महाकालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् ।
नमो भूतनाथं नमो प्रेतनाथं नमः कालकालं नमः रुद्रमालम् ।
नमः कालिकाप्रेमलोलं करालं नमो भैरवं काशिका क्षेत्रपालम् ॥

भोजन के प्रकार

भीष्म पितामह ने अर्जुन को 4 प्रकार से भोजन न करने के लिए बताया था …

पहला भोजन ….
जिस भोजन की थाली को कोई लांघ कर गया हो वह भोजन की थाली नाले में पड़े कीचड़ के समान होती है …!

दूसरा भोजन ….
जिस भोजन की थाली में ठोकर लग गई,पाव लग गया वह भोजन की थाली भिष्टा के समान होता है ….!

तीसरे प्रकार का भोजन ….
जिस भोजन की थाली में बाल पड़ा हो, केश पड़ा हो वह दरिद्रता के समान होता है ….

चौथे नंबर का भोजन ….
अगर पति और पत्नी एक ही थाली में भोजन कर रहे हो तो वह मदिरा के तुल्य होता है …..
और सुनो अर्जुन अगर पत्नी,पति के भोजन करने के बाद थाली में भोजन करती है उसी थाली में भोजन करती है या पति का बचा हुआ खाती है तो उसे चारों धाम के पुण्य का फल प्राप्त होता है ..
अगर दो भाई एक थाली में भोजन कर रहे हो तो वह अमृतपान कहलाता है

चारों धाम के प्रसाद के तुल्य वह भोजन हो जाता है ….

और सुनो अर्जुन …..
बेटी अगर कुमारी हो और अपने पिता के साथ भोजन करती है एक ही थाली में तो उस पिता की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती ….
क्योंकि बेटी पिता की अकाल मृत्यु को हर लेती है ! इसीलिए बेटी जब तक कुमारी रहे तो अपने पिता के साथ बैठकर भोजन कर सकती है।

संस्कार दिये बिना सुविधायें देना, पतन का कारण है …

“सुविधाएं अगर आप ने बच्चों को नहीं दिए तो हो सकता है वह थोड़ी देर के लिए रोए …
पर संस्कार नहीं दिए तो वे जीवन भर रोएंगे।

क्या है रामायण ?

छोटा सा वृतांत है

एक रात की बात हैं,माता कौशिल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी।
नींद खुल गई ।
पूछा कौन हैं ?

मालूम पड़ा श्रुतिकीर्ति जी हैं ।
नीचे बुलाया गया

श्रुतिकीर्ति जी,
जो सबसे छोटी बहु हैं, आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं

माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति ! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बिटिया ?
क्या नींद नहीं आ रही ?

शत्रुघ्न कहाँ है ?

श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी,
गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए ।

उफ !
कौशल्या जी का ह्रदय काँप कर झटपटा गया ।

तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए ।
आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी,
माँ चली ।

आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले ?

अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले ।

माँ सिराहने बैठ गईं,
बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी नेआँखें खोलीं,

माँ !

उठे, चरणों में गिरे, माँ ! आपने क्यों कष्ट किया ?
मुझे बुलवा लिया होता ।

माँ ने कहा,
शत्रुघ्न ! यहाँ क्यों ?”

शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम जी पिताजी की आज्ञा से वन चले गए,
भैया लक्ष्मण जी उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?

माता कौशल्या जी निरुत्तर रह गईं ।

देखो क्या है ये रामकथा…

यह भोग की नहीं….
त्याग की कथा हैं, यहाँ त्याग की प्रतियोगिता चल रही हैं और सभी प्रथम हैं, कोई पीछे नहीं रहा

चारो भाइयों का प्रेम और त्याग एक दूसरे के प्रति अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं ।

रामायण जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं ।

भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी माँ सीता ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया।
परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते!
माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की..
परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी,
परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा!! क्या कहूंगा!

यहीं सोच विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं- “आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जाओ।
मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।”

लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था।
परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया।
वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है। पति संकोच में पड़े,
उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे!

लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया।
वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जाग जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया।

मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण को शक्ति लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेके लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें राक्षस समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी गिर जाते हैं।
तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीता जी को रावण ले गया, लक्ष्मण जी मूर्छित हैं।

यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे।
माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है।
मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं। माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं?

क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं?

हनुमान जी पूछते हैं- देवी!
आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा।
उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा।
वे बोलीं- “
मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता।
आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं।
जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता।
यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं।
मेरे पति जब से वन गये हैं,
तबसे सोये नहीं हैं।
उन्होंने न सोने का प्रण लिया था। इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं। और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे उठ जायेंगे। और शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं शक्ति तो राम जी को लगी है।
मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में हैं ही सिर्फ राम, तो शक्ति राम जी को ही लगी, दर्द राम जी को ही हो रहा।
इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होके जाएँ। सूर्य उदित नहीं होगा।”

राम राज्य की नींव जनक की बेटियां ही थीं…
कभी सीता तो कभी उर्मिला। भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया
परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण , बलिदान से ही आया।

मोह-विसर्जन का सुख


किसी नगर में एक आदमी रहता था। वह पढ़ा-लिखा और चतुर था।

एक बार उसमें धन कमाने की लालसा पैदा हुई। उसके लिए उसने प्रयत्न आरंभ किया। देखते-देखते उसके पास लाखों की संपदा हो गई…

पर उसके पास ज्यों-ज्यों पैसा आता गया, उसका लोभ बढ़ता गया। साथ ही धन का ढेर भी ऊंचा होता गया।

वह बड़ा खुश था। पहले तो उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी और अब उसकी तिजोरियां भरी थीं और एक-से-एक बढ़िया उसके मकान खड़े थे।

उसे सब प्रकार की सुविधाएं थीं। धन के बल पर वह जो चाहे प्राप्त कर सकता था, लेकिन एक चीज थी जिसका उसके जीवन में बड़ा अभाव था.. उसके कोई लड़का नहीं था।

धीरे-धीरे उसकी किशोरावस्था बीतने लगी, पर धन संपत्ति के प्रति उसकी मूर्च्छा में कोई अंतर नहीं पड़ा।

अचानक एक दिन, रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े उसने देखा कि सामने कोई अस्पष्ट-सी आकृति खड़ी है।

उसने घबराकर पूछा… कौन..?

उत्तर मिला… ‘मृत्यु’ … इतना कहकर वह आकृति अंतर्धान हो गई।

आदमी बेहाल हो गया। मारे बेचैनी के उसे नींद नहीं आई।

इतना ही नहीं, उस दिन से जब भी वह एकांत में होता, मौत उसके सामने आ जाती, उसका सारा सुख मिट्टी हो गया।

मन चिंताओं से भर गया… वह हर घड़ी भयभीत रहने लगा।

कुछ ही दिनों में उसके चेहरे का रंग बदल गया। वह वैद्य-डॉक्टरों के पास गया, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हुआ।

ज्यों-ज्यों दवा की, रोग घटने के बजाय बढ़ता ही गया।

लोगों ने उसकी यह दशा देखी तो कहा कि नगर के उत्तरी छोर पर एक साधु रहता है, वह सब प्रकार की व्याधियों को दूर कर देता है।

बड़ी आशा से वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और उसे अपनी सारी दास्तान सुनाई।

अंत में उनके चरण पकड़कर रोते हुए प्रार्थना की… भगवन् मेरा कष्ट दूर करो.. मौत मेरा पीछा नहीं छोड़ती।

साधु ने उसकी सारी बात ध्यान से सुनी और कहा, भले आदमी ! मोह और मृत्यु परम मित्र हैं।

जब तक तुम्हारे पास मोह है, मृत्यु आती ही रहेगी। मृत्यु से छुटकारा तभी मिलेगा जबकि तुम मोह का पल्ला छोड़ोगे।

आदमी ने गिड़गिड़ाकार कहा, महाराज, मैं क्या करूं ? मोह छूटता ही नहीं…

साधु सांत्वना देते हुए बड़े प्यार से बोले, परेशान मत होओ, मैं तुम्हें मोह-विसर्जन का उपाय बताता हूं।

कल से ही तुम एक काम करो.. एक हाथ से लो दूसरे से दो, मुट्ठी मत बांधो। हाथ को खुला रखो.. तुम्हारा रोग तत्काल दूर हो जाएगा।

साधु की बात उसके दिल में घर कर गई। नए जीवन का आरंभ हुआ।

कुछ ही दिन में उसने देखा कि उसका न केवल रोग ही दूर हुआ, बल्कि उसको उस आनंद की उपलब्धि भी हुई जो उसे पहले कभी नहीं मिला था।

बेटी की चाह


40-42 साल की परिपक्व घरेलू स्त्री थी ‘सुधा’,भरापूरा परिवार था। धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी। सुधा भी ख़ुश ही थी अपने घर-संसार में, लेकिन कभी-कभी अचानक बेचैन हो उठती।

इसका कारण वह ख़ुद भी नहीं जानती थी। पति उससे हमेशा पूछते कि उसे क्या परेशानी है? पर वह इस बात का कोई उत्तर न दे पाती।
तीनों ही बच्चे बड़े हो गए थे। सबसे बड़ा बेटा इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष में, मंझला पहले वर्ष में और छोटा दसवीं में था।

तीनों ही किशोरावस्था में थे। अब उनके रुचि के विषय अपने पिता के विचारों से ज़्यादा मेल खाते। वे ज़्यादातर समय अपने पिता, टीवी और दोस्तों के साथ बिताते। सुधा चाहती थी कि उसके तीनों बेटे उसके साथ कुछ समय बिताएं, पर उनकी रुचियां कुछ अलग थीं। अब वे तीनों ही बच्चे नहीं रह गए थे, धीरे-धीरे वे पुरुष बनते जा रहे थे।
एक सुबह सुधा ने अपने पति से कहा, “मेरी ख़ुशी के लिए आप कुछ करेंगे?” पति ने कहा, “हां-हां क्यों नहीं? तुम कहो तो सही” सुधा सहमते हुए बोली, “मैं एक बेटी गोद लेना चाहती हूं।” पति को आश्चर्य हुआ, पर सुधा ने कहा, “सवाल-जवाब मत करिएगा, प्लीज़।”

तीनों बच्चों के सामने भी यह प्रस्ताव रखा गया, किसी ने कोई आपत्ति तो नहीं की, पर सबके मन में सवाल था “क्यों?”
जल्द ही सुधा ने डेढ़ महीने की एक प्यारी-सी बच्ची अनाथाश्रम से गोद ले ली। तीन बार मातृत्व का स्वाद चखने के बाद भी आज उसमें वात्सल्य की कोई कमी नहीं थी।

बच्ची के आने की ख़ुशी में सुधा और उसके पति ने एक समारोह का आयोजन किया। सब मेहमानों को संबोधित करते हुए सुधा बोली, “मैं आज अपने परिवार और पूरे समाज के ‘क्यों’ का जवाब देना चाहती हूं। मेरे ख़याल से हर घर में एक बेटी का होना बहुत ज़रूरी है

बेटी के प्रेम और अपनेपन की आर्द्रता ही घर के सभी लोगों को एक-दूसरे से बांधे रखती है। तीन बेटे होने के बावजूद मैं संतुष्ट नहीं थी. मैं स्वयं की परछाईं इनमें से किसी में नहीं ढूंढ़ पाती। बेटी शक्ति है, सृजन का स्रोत है।

मुझे दुख ही नहीं, पीड़ा भी होती है, जब मैं देखती हूं कि किसी स्त्री ने अपने भ्रूण की हत्या बेटी होने के कारण कर दी या उसे कचरे के डिब्बे में कुत्तों के भोजन के लिए छोड़ दिया। मैं समझती हूं कि मेरे पति का वंश ज़रूर मेरे ये तीनों बेटे बढ़ाएंगे, पर मेरे ‘मातृत्व’ का वंश तो एक बेटी ही बढ़ा सकती है।”

वृन्दावन के चींटें


एक सच्ची घटना सुनिए एक संत की
वे एक बार वृन्दावन गए वहाँ कुछ दिन घूमे फिरे दर्शन किए
जब वापस लौटने का मन किया तो सोचा भगवान् को भोग लगा कर कुछ प्रसाद लेता चलूँ..

संत ने रामदाने के कुछ लड्डू ख़रीदे मंदिर गए.. प्रसाद चढ़ाया और आश्रम में आकर सो गए.. सुबह ट्रेन पकड़नी थी

अगले दिन ट्रेन से चले.. सुबह वृन्दावन से चली ट्रेन को मुगलसराय स्टेशन तक आने में शाम हो गयी..

संत ने सोचा.. अभी पटना तक जाने में तीन चार घंटे और लगेंगे.. भूख लग रही है.. मुगलसराय में ट्रेन आधे घंटे रूकती है..

चलो हाथ पैर धोकर संध्या वंदन करके कुछ पा लिया जाय..

संत ने हाथ पैर धोया और लड्डू खाने के लिए डिब्बा खोला..

उन्होंने देखा लड्डू में चींटे लगे हुए थे.. उन्होंने चींटों को हटाकर एक दो लड्डू खा लिए

बाकी बचे लड्डू प्रसाद बाँट दूंगा ये सोच कर छोड़ दिए

पर कहते हैं न संत ह्रदय नवनीत समाना

बेचारे को लड्डुओं से अधिक उन चींटों की चिंता सताने लगी..

सोचने लगे.. ये चींटें वृन्दावन से इस मिठाई के डिब्बे में आए हैं..

बेचारे इतनी दूर तक ट्रेन में मुगलसराय तक आ गए

कितने भाग्यशाली थे.. इनका जन्म वृन्दावन में हुआ था,

अब इतनी दूर से पता नहीं कितने दिन या कितने जन्म लग जाएँगे इनको वापस पहुंचने में..!

पता नहीं ब्रज की धूल इनको फिर कभी मिल भी पाएगी या नहीं..!!

मैंने कितना बड़ा पाप कर दिया.. इनका वृन्दावन छुड़वा दिया

नहीं मुझे वापस जाना होगा..

और संत ने उन चींटों को वापस उसी मिठाई के डिब्बे में सावधानी से रखा.. और वृन्दावन की ट्रेन पकड़ ली।

उसी मिठाई की दूकान के पास गए डिब्बा धरती पर रखा.. और हाथ जोड़ लिए

मेरे भाग्य में नहीं कि तेरे ब्रज में रह सकूँ तो मुझे कोई अधिकार भी नहीं कि जिसके भाग्य में ब्रज की धूल लिखी है उसे दूर कर सकूँ

दूकानदार ने देखा तो आया..

महाराज चीटें लग गए तो कोई बात नहीं आप दूसरी मिठाई तौलवा लो..

संत ने कहा.. भईया मिठाई में कोई कमी नहीं थी

इन हाथों से पाप होते होते रह गया उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ..!

दुकानदार ने जब सारी बात जानी तो उस संत के पैरों के पास बैठ गया.. भावुक हो गया

इधर दुकानदार रो रहा था… उधर संत की आँखें गीली हो रही थीं!!

बात भाव की है.. बात उस निर्मल मन की है.. बात ब्रज की है.. बात मेरे वृन्दावन की है..

बात मेरे नटवर नागर और उनकी राधारानी की है.. बात मेरे कृष्ण की राजधानी की है।

बूझो तो बहुत कुछ है.. नहीं तो बस पागलपन है.. बस एक कहानी घर से जब भी बाहर जाये

तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर
मिलकर जाएं
और
जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले
क्योंकि
उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार
रहता है

“घर” में यह नियम बनाइए की जब भी आप घर से बाहर निकले तो घर में मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर कहें *
“प्रभु चलिए..
आपको साथ में रहना हैं”..!
ऐसा बोल कर ही घर से निकले
क्यूँकिआप भले ही
“लाखों की घड़ी” हाथ में क्यूँ ना पहने हो
पर

“समय” तो “प्रभु के ही हाथ” में हैं न

भगवान से मिलने

एक बार एक संत, एक सेठ के पास आए। सेठ ने उनकी बड़ी सेवा की। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर,
संत ने कहा- अगर आप चाहें तो आपको भगवान से मिलवा दूं?
सेठ ने कहा- महाराज! मैं भगवान से मिलना तो चाहता हूँ, पर अभी मेरा बेटा छोटा है। वह कुछ बड़ा हो जाए तब मैं चलूँगा।

बहुत समय के बाद संत फिर आए, बोले- अब तो आपका बेटा बड़ा हो गया है। अब चलें?
सेठ- महाराज! उसकी सगाई हो गई है। उसका विवाह जाता, घर में बहू आ जाती, तब मैं चल पड़ता।

संत तीन साल बाद फिर आए। बहू आँगन में घूम रही थी। संत बोले- सेठ जी! अब चलें?
सेठ- महाराज! मेरी बहू को बालक होने वाला है। मेरे मन में कामना रह जाएगी कि मैंने पोते का मुँह नहीं देखा। एक बार पोता हो जाए, तब चलेंगे।

संत पुनः आए तब तक सेठ की मृत्यु हो चुकी थी। ध्यान लगाकर देखा तो वह सेठ बैल बना सामान ढ़ो रहा था।
संत बैल के कान में बोले- अब तो आप बैल हो गए, अब भी भगवान से मिल लें। सेठ- मैं इस दुकान का बहुत काम कर देता हूँ। मैं न रहूँगा तो मेरा लड़का कोई और बैल रखेगा। वह खाएगा ज्यादा और काम कम करेगा। इसका नुकसान हो जाएगा।
संत फिर आए तब तक बैल भी मर गया था। देखा कि वह कुत्ता बनकर दरवाजे पर बैठा था। संत ने कुत्ते से कहा- अब तो आप कुत्ता हो गए, अब तो भगवान से मिलने चलो।

कुत्ता बोला- महाराज! आप देखते नहीं कि मेरी बहू कितना सोना पहनती है, अगर कोई चोर आया तो मैं भौंक कर भगा दूँगा। मेरे बिना कौन इनकी रक्षा करेगा?

संत चले गए। अगली बार कुत्ता भी मर गया था और सेठ गंदे नाले पर मेंढक बने टर्र टर्र कर रहा था।
संत को बड़ी दया आई, बोले- सेठ जी अब तो आप की दुर्गति हो गई। और कितना गिरोगे?

अब भी चल पड़ो।
मेंढक क्रोध से बोला- अरे महाराज! मैं यहाँ बैठकर, अपने नाती पोतों को देखकर प्रसन्न हो जाता हूँ। और भी तो लोग हैं दुनिया में, आपको मैं ही मिला हूँ भगवान से मिलवाने के लिए? जाओ महाराज किसी और को ले जाओ। मुझे माफ करो।

संत तो कृपालु हैं, बार बार प्रयास करते हैं। पर उस सेठ की ही तरह, दुनियावाले भगवान से मिलने की बात तो बहुत करते हैं, पर मिलना नहीं चाहते।