Prayag Culture

बेटी की चाह


40-42 साल की परिपक्व घरेलू स्त्री थी ‘सुधा’,भरापूरा परिवार था। धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी। सुधा भी ख़ुश ही थी अपने घर-संसार में, लेकिन कभी-कभी अचानक बेचैन हो उठती।

इसका कारण वह ख़ुद भी नहीं जानती थी। पति उससे हमेशा पूछते कि उसे क्या परेशानी है? पर वह इस बात का कोई उत्तर न दे पाती।
तीनों ही बच्चे बड़े हो गए थे। सबसे बड़ा बेटा इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष में, मंझला पहले वर्ष में और छोटा दसवीं में था।

तीनों ही किशोरावस्था में थे। अब उनके रुचि के विषय अपने पिता के विचारों से ज़्यादा मेल खाते। वे ज़्यादातर समय अपने पिता, टीवी और दोस्तों के साथ बिताते। सुधा चाहती थी कि उसके तीनों बेटे उसके साथ कुछ समय बिताएं, पर उनकी रुचियां कुछ अलग थीं। अब वे तीनों ही बच्चे नहीं रह गए थे, धीरे-धीरे वे पुरुष बनते जा रहे थे।
एक सुबह सुधा ने अपने पति से कहा, “मेरी ख़ुशी के लिए आप कुछ करेंगे?” पति ने कहा, “हां-हां क्यों नहीं? तुम कहो तो सही” सुधा सहमते हुए बोली, “मैं एक बेटी गोद लेना चाहती हूं।” पति को आश्चर्य हुआ, पर सुधा ने कहा, “सवाल-जवाब मत करिएगा, प्लीज़।”

तीनों बच्चों के सामने भी यह प्रस्ताव रखा गया, किसी ने कोई आपत्ति तो नहीं की, पर सबके मन में सवाल था “क्यों?”
जल्द ही सुधा ने डेढ़ महीने की एक प्यारी-सी बच्ची अनाथाश्रम से गोद ले ली। तीन बार मातृत्व का स्वाद चखने के बाद भी आज उसमें वात्सल्य की कोई कमी नहीं थी।

बच्ची के आने की ख़ुशी में सुधा और उसके पति ने एक समारोह का आयोजन किया। सब मेहमानों को संबोधित करते हुए सुधा बोली, “मैं आज अपने परिवार और पूरे समाज के ‘क्यों’ का जवाब देना चाहती हूं। मेरे ख़याल से हर घर में एक बेटी का होना बहुत ज़रूरी है

बेटी के प्रेम और अपनेपन की आर्द्रता ही घर के सभी लोगों को एक-दूसरे से बांधे रखती है। तीन बेटे होने के बावजूद मैं संतुष्ट नहीं थी. मैं स्वयं की परछाईं इनमें से किसी में नहीं ढूंढ़ पाती। बेटी शक्ति है, सृजन का स्रोत है।

मुझे दुख ही नहीं, पीड़ा भी होती है, जब मैं देखती हूं कि किसी स्त्री ने अपने भ्रूण की हत्या बेटी होने के कारण कर दी या उसे कचरे के डिब्बे में कुत्तों के भोजन के लिए छोड़ दिया। मैं समझती हूं कि मेरे पति का वंश ज़रूर मेरे ये तीनों बेटे बढ़ाएंगे, पर मेरे ‘मातृत्व’ का वंश तो एक बेटी ही बढ़ा सकती है।”

वृन्दावन के चींटें


एक सच्ची घटना सुनिए एक संत की
वे एक बार वृन्दावन गए वहाँ कुछ दिन घूमे फिरे दर्शन किए
जब वापस लौटने का मन किया तो सोचा भगवान् को भोग लगा कर कुछ प्रसाद लेता चलूँ..

संत ने रामदाने के कुछ लड्डू ख़रीदे मंदिर गए.. प्रसाद चढ़ाया और आश्रम में आकर सो गए.. सुबह ट्रेन पकड़नी थी

अगले दिन ट्रेन से चले.. सुबह वृन्दावन से चली ट्रेन को मुगलसराय स्टेशन तक आने में शाम हो गयी..

संत ने सोचा.. अभी पटना तक जाने में तीन चार घंटे और लगेंगे.. भूख लग रही है.. मुगलसराय में ट्रेन आधे घंटे रूकती है..

चलो हाथ पैर धोकर संध्या वंदन करके कुछ पा लिया जाय..

संत ने हाथ पैर धोया और लड्डू खाने के लिए डिब्बा खोला..

उन्होंने देखा लड्डू में चींटे लगे हुए थे.. उन्होंने चींटों को हटाकर एक दो लड्डू खा लिए

बाकी बचे लड्डू प्रसाद बाँट दूंगा ये सोच कर छोड़ दिए

पर कहते हैं न संत ह्रदय नवनीत समाना

बेचारे को लड्डुओं से अधिक उन चींटों की चिंता सताने लगी..

सोचने लगे.. ये चींटें वृन्दावन से इस मिठाई के डिब्बे में आए हैं..

बेचारे इतनी दूर तक ट्रेन में मुगलसराय तक आ गए

कितने भाग्यशाली थे.. इनका जन्म वृन्दावन में हुआ था,

अब इतनी दूर से पता नहीं कितने दिन या कितने जन्म लग जाएँगे इनको वापस पहुंचने में..!

पता नहीं ब्रज की धूल इनको फिर कभी मिल भी पाएगी या नहीं..!!

मैंने कितना बड़ा पाप कर दिया.. इनका वृन्दावन छुड़वा दिया

नहीं मुझे वापस जाना होगा..

और संत ने उन चींटों को वापस उसी मिठाई के डिब्बे में सावधानी से रखा.. और वृन्दावन की ट्रेन पकड़ ली।

उसी मिठाई की दूकान के पास गए डिब्बा धरती पर रखा.. और हाथ जोड़ लिए

मेरे भाग्य में नहीं कि तेरे ब्रज में रह सकूँ तो मुझे कोई अधिकार भी नहीं कि जिसके भाग्य में ब्रज की धूल लिखी है उसे दूर कर सकूँ

दूकानदार ने देखा तो आया..

महाराज चीटें लग गए तो कोई बात नहीं आप दूसरी मिठाई तौलवा लो..

संत ने कहा.. भईया मिठाई में कोई कमी नहीं थी

इन हाथों से पाप होते होते रह गया उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ..!

दुकानदार ने जब सारी बात जानी तो उस संत के पैरों के पास बैठ गया.. भावुक हो गया

इधर दुकानदार रो रहा था… उधर संत की आँखें गीली हो रही थीं!!

बात भाव की है.. बात उस निर्मल मन की है.. बात ब्रज की है.. बात मेरे वृन्दावन की है..

बात मेरे नटवर नागर और उनकी राधारानी की है.. बात मेरे कृष्ण की राजधानी की है।

बूझो तो बहुत कुछ है.. नहीं तो बस पागलपन है.. बस एक कहानी घर से जब भी बाहर जाये

तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर
मिलकर जाएं
और
जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले
क्योंकि
उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार
रहता है

“घर” में यह नियम बनाइए की जब भी आप घर से बाहर निकले तो घर में मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर कहें *
“प्रभु चलिए..
आपको साथ में रहना हैं”..!
ऐसा बोल कर ही घर से निकले
क्यूँकिआप भले ही
“लाखों की घड़ी” हाथ में क्यूँ ना पहने हो
पर

“समय” तो “प्रभु के ही हाथ” में हैं न

भगवान से मिलने

एक बार एक संत, एक सेठ के पास आए। सेठ ने उनकी बड़ी सेवा की। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर,
संत ने कहा- अगर आप चाहें तो आपको भगवान से मिलवा दूं?
सेठ ने कहा- महाराज! मैं भगवान से मिलना तो चाहता हूँ, पर अभी मेरा बेटा छोटा है। वह कुछ बड़ा हो जाए तब मैं चलूँगा।

बहुत समय के बाद संत फिर आए, बोले- अब तो आपका बेटा बड़ा हो गया है। अब चलें?
सेठ- महाराज! उसकी सगाई हो गई है। उसका विवाह जाता, घर में बहू आ जाती, तब मैं चल पड़ता।

संत तीन साल बाद फिर आए। बहू आँगन में घूम रही थी। संत बोले- सेठ जी! अब चलें?
सेठ- महाराज! मेरी बहू को बालक होने वाला है। मेरे मन में कामना रह जाएगी कि मैंने पोते का मुँह नहीं देखा। एक बार पोता हो जाए, तब चलेंगे।

संत पुनः आए तब तक सेठ की मृत्यु हो चुकी थी। ध्यान लगाकर देखा तो वह सेठ बैल बना सामान ढ़ो रहा था।
संत बैल के कान में बोले- अब तो आप बैल हो गए, अब भी भगवान से मिल लें। सेठ- मैं इस दुकान का बहुत काम कर देता हूँ। मैं न रहूँगा तो मेरा लड़का कोई और बैल रखेगा। वह खाएगा ज्यादा और काम कम करेगा। इसका नुकसान हो जाएगा।
संत फिर आए तब तक बैल भी मर गया था। देखा कि वह कुत्ता बनकर दरवाजे पर बैठा था। संत ने कुत्ते से कहा- अब तो आप कुत्ता हो गए, अब तो भगवान से मिलने चलो।

कुत्ता बोला- महाराज! आप देखते नहीं कि मेरी बहू कितना सोना पहनती है, अगर कोई चोर आया तो मैं भौंक कर भगा दूँगा। मेरे बिना कौन इनकी रक्षा करेगा?

संत चले गए। अगली बार कुत्ता भी मर गया था और सेठ गंदे नाले पर मेंढक बने टर्र टर्र कर रहा था।
संत को बड़ी दया आई, बोले- सेठ जी अब तो आप की दुर्गति हो गई। और कितना गिरोगे?

अब भी चल पड़ो।
मेंढक क्रोध से बोला- अरे महाराज! मैं यहाँ बैठकर, अपने नाती पोतों को देखकर प्रसन्न हो जाता हूँ। और भी तो लोग हैं दुनिया में, आपको मैं ही मिला हूँ भगवान से मिलवाने के लिए? जाओ महाराज किसी और को ले जाओ। मुझे माफ करो।

संत तो कृपालु हैं, बार बार प्रयास करते हैं। पर उस सेठ की ही तरह, दुनियावाले भगवान से मिलने की बात तो बहुत करते हैं, पर मिलना नहीं चाहते।

नाद ब्रह्म एवं स्वर साधना

सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ हुई प्रथम महास्फोट हुआ, तब आदि नाद उत्पन्न हुआ। उस मूल ध्वनि को जिसका प्रतीक ‘ॐ‘ है, नादव्रह्म कहा जाता है। पांतजलि योगसूत्र में पातंजलि मुनि ने इसका वर्णन ‘तस्य वाचक प्रणव:‘ की अभिव्यक्ति ॐ के रूप में है, ऐसा कहा है। माण्डूक्योपनिषद्‌ में कहा है-

ओमित्येतदक्षरमिदम्‌ सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद्भविष्यदिपि सर्वमोड्‌◌ंकार एवं
यच्यान्यत्‌ त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव॥
माण्डूक्योपनिषद्‌-१॥

अर्थात्‌ ॐ अक्षर अविनाशी स्वरूप है। यह संम्पूर्ण जगत का ही उपव्याख्यान है। जो हो चुका है, जो है तथा जो होने वाला है, यह सबका सब जगत ओंकार ही है तथा जो ऊपर कहे हुए तीनों कालों से अतीत अन्य तत्व है, वह भी ओंकार ही है।
पूरब में वाणी विज्ञान पर बहुत गहराई से विचार किया गया। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है-

चत्वारि वाक्‌ परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
ऋग्वेद १-१६४-४५

अर्थात्‌ वाणी के चार पाद होते हैं । इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-

१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी
वाणी कहां से उत्पन्न होती है, इसकी गहराई में जाकर अनुभूति की गई है। इस आधार पर पाणिनी कहते हैं, आत्मा वह मूल आधार है जहां से ध्वनि उत्पन्न होती है। वह इसका पहला रूप है। यह अनुभूति का विषय है। किसी यंत्र के द्वारा सुनाई नहीं देती। ध्वनि के इस रूप को परा कहा गया।

आगे जब आत्मा, बुद्धि तथा अर्थ की सहायता से मन: पटल पर कर्ता, कर्म या क्रिया का चित्र देखता है, वाणी का यह रूप पश्यन्ती कहलाता है, जिसे आजकल घ्त्ड़द्यदृद्धत्ठ्ठथ्‌ कहते हैं। हम जो कुछ बोलते हैं, पहले उसका चित्र हमारे मन में बनता है। इस कारण दूसरा चरण पश्यन्ती है।

इसके आगे मन व शरीर की ऊर्जा को प्रेरित कर न सुनाई देने वाला ध्वनि का बुद्बुद् उत्पन्न करता है। वह बुद्बुद् ऊपर उठता है तथा छाती से नि:श्वास की सहायता से कण्ठ तक आता है। वाणी के इस रूप को मध्यमा कहा जाता है। ये तीनों रूप सुनाई नहीं देते हैं। इसके आगे यह बुद्बुद् कंठ के ऊपर पांच स्पर्श स्थानों की सहायता से सर्वस्वर, व्यंजन, युग्माक्षर और मात्रा द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में वाणी के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही सुनाई देने वाली वाणी वैखरी कहलाती है और इस वैखरी वाणी से ही सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, जीवन व्यवहार तथा बोलचाल की अभिव्यक्ति संभव है।

यहां हम देखते हैं कि कितनी सूक्ष्मता से उन्होंने मुख से निकलने वाली वाणी का निरीक्षण किया तथा क से ज्ञ तक वर्ण किस अंग की सहायता से निकलते हैं, इसका उन्होंने जो विश्लेषण किया वह इतना विज्ञान सम्मत है कि उसके अतिरिक्त अन्य ढंग से आप वह ध्वनि निकाल ही नहीं सकते हैं।

क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है।

च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।

ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।

त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से लगती है।

प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के मिलने पर ही होता है।

सभी वर्ण, संयुक्ताक्षर, मात्रा आदि के उच्चारण का मूल ‘स्वर‘ हैं। अत: उसका भी गहराई से अध्ययन तथा अनुभव किया गया। इसके निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादित किया गया कि स्वर तीन प्रकार के हैं।

उदात्त-उच्च स्वर
अनुदात्त-नीचे का स्वर
स्वरित– मध्यम स्वर

इनका और सूक्ष्म विश्लेषण किया गया, जो संगीत शास्त्र का आधार बना। संगीत शास्त्र में सात स्वर माने गए जिन्हें सा रे ग म प ध नि के प्रतीक चिन्हों से जाना जाता है। इन सात स्वरों का मूल तीन स्वरों में विभाजन किया गया।

उच्चैर्निषाद, गांधारौ नीचै ऋर्षभधैवतौ।
शेषास्तु स्वरिता ज्ञेया:, षड्ज मध्यमपंचमा:॥

अर्थात्‌ निषाद तथा गांधार (नि ग) स्वर उदात्त हैं। ऋषभ और धैवत (रे, ध) अनुदात्त। षड्ज, मध्यम और पंचम (सा, म, प) ये स्वरित हैं।

इन सातों स्वरों के विभिन्न प्रकार के समायोजन से विभिन्न रागों के रूप बने और उन रागों के गायन में उत्पन्न विभिन्न ध्वनि तरंगों का परिणाम मानव, पशु प्रकृति सब पर पड़ता है। इसका भी बहुत सूक्ष्म निरीक्षण हमारे यहां किया गया है।

विशिष्ट मंत्रों के विशिष्ट ढंग से उच्चारण से वायुमण्डल में विशेष प्रकार के कंपन उत्पन्न होते हैं, जिनका विशेष परिणाम होता है। यह मंत्रविज्ञान का आधार है। इसकी अनुभूति वेद मंत्रों के श्रवण या मंदिर के गुंबज के नीचे मंत्रपाठ के समय अनुभव में आती है।

हमारे यहां विभिन्न रागों के गायन व परिणाम के अनेक उल्लेख प्राचीनकाल से मिलते हैं। सुबह, शाम, हर्ष, शोक, उत्साह, करुणा-भिन्न-भिन्न प्रसंगों के भिन्न-भिन्न राग हैं। दीपक से दीपक जलना और मेघ मल्हार से वर्षा होना आदि उल्लेख मिलते हैं। वर्तमान में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं।

कुछ अनुभव

(१) प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ ठाकुर १९३३ में फ्लोरेन्स (इटली) में आयोजित अखिल विश्व संगीत सम्मेलन में भाग लेने गए। उस समय मुसोलिनी वहां का तानाशाह था। उस प्रवास में मुसोलिनी से मुलाकात के समय पंडित जी ने भारतीय रागों के महत्व के बारे में बताया। इस पर मुसोलिनी ने कहा, मुझे कुछ दिनों से नींद नहीं आ रही है। यदि आपके संगीत में कुछ विशेषता हो, तो बताइये। इस पर पं. ओंकार नाथ ठाकुर ने तानपूरा लिया और राग ‘पूरिया‘ (कोमल धैवत का) गाने लगे। कुछ समय के अंदर मुसोलिनी को प्रगाढ़ निद्रा आ गई। बाद में उसने भारतीय संगीत की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा रॉयल एकेडमी ऑफ म्यूजिक के प्राचार्य को पंडित जी के संगीत के स्वर एवं लिपि को रिकार्ड करने का आदेश दिया।

(२) आजकल पाश्चात्य जीवन मूल्य, आचार तथा व्यवहार का प्रभाव पड़ने के साथ युवा पीढ़ी में पाश्चात्य पॉप म्यूजिक का भी आकर्षण बढ़ रहा है। पॉप म्यूजिक आन्तरिक व्यक्तित्व को कुंठित और निम्न भावनाओं को बढ़ाने का कारण बनता है, जबकि भारतीय संगीत जीवन में संतुलन तथा उदात्त भावनाओं को विकसित करने का माध्यम है। इसे निम्न अनुभव प्रयोग स्पष्ट कर सकते हैं।

पांडिचेरी स्थित श्री अरविंद आश्रम में श्रीमां ने एक प्रयोग किया। एक मैदान में दो स्थानों पर एक ही प्रकार के बीज बोये गये तथा उनमें से एक के आगे पॉप म्यूजिक बजाया गया तथा दूसरे के आगे भारतीय संगीत। समय के साथ अंकुर फूटा और पौधा बढ़ने लगा। परन्तु आश्चर्य यह था कि जहां पॉप म्यूजिक बजता था, वह पौधा असंतुलित तथा उसके पत्ते कटे-फटे थे। जहां भारतीय संगीत बजता था, वह पौधा संतुलित तथा उसके पत्ते पूर्ण आकार के और विकसित थे। यह देखकर श्रीमां ने कहा, दोनों संगीतों का प्रभाव मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व पर भी उसी प्रकार पड़ता है जिस प्रकार इन पौधों पर पड़ा दिखाई देता है।

(३) हम लोग संगीत सुनते हैं तो एक बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करें, इससे पाश्चात्य तथा भारतीय संगीत की प्रकृति तथा परिणाम का सूक्ष्मता से ज्ञान हो सकता है। जब कभी किसी संगीत सभा में पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज या अन्य किसी का गायन होता है और उस शास्त्रीय गायन में जब श्रोता उससे एकाकार हो जाते हैं तो उनका मन उसमें मस्त हो जाता है, तब प्राप्त आनन्द की अनुभूति में वे सिर हिलाते हैं। दूसरी ओर जब पाश्चात्य संगीत बजता है, कोई माइकेल जैक्सन, मैडोना का चीखते-चिल्लाते स्वरों के आरोह-अवरोह चालू होते हैं तो उसके साथ ही श्रोता के पैर थिरकने लगते हैं। अत: ध्यान में आता है कि भारतीय संगीत मानव की नाभि के ऊपर की भावनाएं विकसित करता है और पाश्चात्य पॉप म्यूजिक नाभि के नीचे की भावनाएं बढ़ाता है जो मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व को विखंडित कर देता है।

ध्वनि कम्पन (च्दृद्वदड्ड ज्त्डद्धठ्ठद्यत्दृद) किसी घंटी पर प्रहार करते हैं तो उसकी ध्वनि देर तक सुनाई देती है। इसकी प्रक्रिया क्या है? इसकी व्याख्या में वात्स्यायन तथा उद्योतकर कहते हैं कि आघात में कुछ ध्वनि परमाणु अपनी जगह छोड़कर और संस्कार जिसे कम्प संतान-संस्कार कहते हैं, से एक प्रकार का कम्पन पैदा होता है और वायु के सहारे वह आगे बढ़ता है तथा मन्द तथा मन्दतर इस रूप में अविच्छिन्न रूप से सुनाई देता है। इसकी उत्पत्ति का कारण स्पन्दन है।

विज्ञान भिक्षु अपने प्रवचन भाष्य अध्याय १ सूत्र ७ में कहते हैं कि प्रतिध्वनि (कड़ण्दृ) क्या है? इसकी व्याख्या में कहा गया कि जैसे पानी या दर्पण में चित्र दिखता है, वह प्रतिबिम्ब है। इसी प्रकार ध्वनि टकराकर पुन: सुनाई देती है, वह प्रतिध्वनि है। जैसे जल या दर्पण का बिम्ब वास्तविक चित्र नहीं है, उसी प्रकार प्रतिध्वनि भी वास्तविक ध्वनि नहीं है।

रूपवत्त्वं च न सामान्य त: प्रतिबिम्ब प्रयोजकं
शब्दास्यापि प्रतिध्वनि रूप प्रतिबिम्ब दर्शनात्‌॥
विज्ञान भिक्षु, प्रवचन भाष्य अ. १ सूत्र-४७

घ्त्ड़ण्‌ क्ष्दद्यड्ढदद्मत्द्यन्र्‌ ठ्ठदड्ड च्र्त्थ्र्डद्धड्ढ-वाचस्पति मिश्र के अनुसार ‘शब्दस्य असाधारण धर्म:‘- शब्द के अनेक असाधारण गुण होते हैं। गंगेश उपाध्याय जी ने ‘तत्व चिंतामणि‘ में कहा- ‘वायोरेव मन्दतर तमादिक्रमेण मन्दादि शब्दात्पत्ति।‘ वायु की सहायता से मन्द-तीव्र शब्द उत्पन्न होते हैं।

वाचस्पति, जैमिनी, उदयन आदि आचार्यों ने बहुत विस्तारपूर्वक अपने ग्रंथों में ध्वनि की उत्पत्ति, कम्पन, प्रतिध्वनि, उसकी तीव्रता, मन्दता, उनके परिणाम आदि का हजारों वर्ष पूर्व किया जो विश्लेषण है, वह आज भी चमत्कृत करता है।

ध्वनि शास्त्र पर आधारित भारतीय लिपि
१८वीं -१९वीं सदी के अनेक पाश्चात्य संशोधकों ने यह भ्रमपूर्ण धारणा फैलाने का प्रयत्न किया कि भारत के प्राचीन ऋषि लेखन कला से अनभिज्ञ थे तथा ईसा से ३००-४०० वर्ष पूर्व भारत में विकसित व्राह्मी लिपि का मूल भारत से बाहर था। इस संदर्भ में डा. ओरफ्र्ीड व म्युएलर ने प्रतिपादित किया कि भारत को लेखन विद्या ग्रीकों से मिली। सर विलियम जोन्स ने कहा कि भारतीय व्राह्मी लिपि सेमेटिक लिपि से उत्पन्न हुई। प्रो. बेवर ने यह तथ्य स्थापित करने का प्रयत्न किया कि व्राह्मी का मूल फोनेशियन लिपि है। डा. डेव्हिड डिरिंजर ने अनुमान किया कि अरेमिक लिपि से व्राह्मी उत्पन्न हुई। मैक्समूलर ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखते समय लिपि के विकास के संदर्भ में अपना यह मत प्रतिपादित किया कि लिखने की कला भारत में ईसा से ४०० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई। दुर्भाग्य से बाद के समय में भारतीय विद्वानों ने भी पाश्चात्य संशोधकों के स्वर में स्वर मिलाते हुए उन्हीं निष्कर्षों का प्रतिपादन किया। इस सारी प्रक्रिया में अपने देश की परम्परा व ग्रंथों में लिपि के विकास की गाथा जानने का विशेष प्रयत्न नहीं हुआ।

देखें कि वास्तविकता क्या है?
प्रसिद्ध पुरातत्ववेता और लिपि विशेषज्ञ अ.ब. वालावलकर तथा लिपिकार लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर ने अपने संशोधन से यह सिद्ध किया कि भारतीय लिपि का उद्गम भारत में ही हुआ है तथा ध्वन्यात्मक आधार पर लेखन परम्परा वेद काल से विद्यमान थी, जिसकी पुष्टि अनेक पुरातत्वीय साक्ष्यों से भी होती है।

एक आदर्श ध्वन्यात्मक लेखन की बाधाओं का वर्णन एरिक गिल अपने टाइपोग्राफी (च्र्न्र्द्रदृढ़द्धठ्ठद्रण्न्र्) पर लिखे निबंध में कहते हैं कि किसी समय कोई अक्षर किसी ध्वनि का पर्यायवाची रहा होगा, परन्तु रोमन लिपि के अध्ययन से अमुक अक्षर हमेशा व हर जगह अमुक ध्वनि का पर्याय है, यह तथ्य ध्यान में नहीं आता। उदाहरण के तौर पर दृद्वढ़ण्‌- ये चार अक्षर ७ भिन्न-भिन्न प्रकार व भिन्न-भिन्न ध्वनि से उच्चारित होते हैं- ‘ओड, अफ, ऑफ, आऊ, औ, ऊ, ऑ‘। यह लिखने के बाद अपने निष्कर्ष के रूप में गिल कहते हैं कि मेरा स्पष्ट विचार है, ‘हमारे रोमन अक्षर ध्वनि का लेखन, मुद्रण ठीक प्रकार से करते हैं, यह कहना मूर्खतापूर्ण होगा।‘

दूसरी ओर भारत में ध्वन्यात्मक लेखन परंपरा युगों से रही है। इसके कुछ प्रमाण हमारे प्राचीन वाङ्मय में प्राप्त होते हैं-

१. यजु तैत्तरीय संहिता में एक कथा आती है कि देवताओं के सामने एक समस्या थी कि वाणी बोली जाने के बाद अदृश्य हो जाती है। अत: इस निराकार वाणी को साकार कैसे करें? अत: वे इन्द्र के पास गए और कहा ‘वाचंव्या कुर्वीत‘ अर्थात्‌ वाणी को आकार प्रदान करो। तब इन्द्र ने कहा मुझे वायु का सहयोग लेना पड़ेगा। देवताओं ने इसे मान्य किया और इन्द्र ने वाणी को आकार दिया। वाणी को आकार देना यानी लेखन विद्या। यही इन्द्र वायव्य व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में अधिक हैं-

२. अथर्ववेद में गणक ऋषिकृत सूक्त गणपति अथर्वशीर्ष की निम्न पंक्तियां लेखन विद्या की उत्पत्ति का स्पष्ट प्रमाण देती हैं-

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्‌। अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितम्‌। तोरण रुद्धम्‌। एतत्तवमनुस्वरूपम्‌। गकार: पूर्वरूपम्‌। अकारो मध्यरूपम्‌ अनुस्वारश्र्चान्त्यरूपम्‌। बिन्दुरुत्तररूपम। नाद: संधानम्‌। संहिता संधि:। सैषा गणेश विद्या।

अर्थात्‌ पहले ध्वनि के गण का उच्चारण करना फिर उसी क्रम में वर्ण (रंग की सहायता से) बाद में लिखना तत्पश्चात्‌ अक्षर पर अनुस्वार देना, वह अर्ध चंद्रयुक्त हो। इस प्रकार हे गणेश आपका स्वरूप, चित्र इस प्रकार होगा ग्‌ यानी व्यंजन तथा बीच का स्वर का भाग यानी आकार रूपदंड तथा अंत मुक्त अनुस्वार। इसका नाद व संधिरूप उच्चारण करना यही गणेश विद्या है, जिसे गणपति जानते हैं।

३. ध्वनि सूत्रों को देने वाले भगवाने शिव थे। भिन्न-भिन्न वेद की शाखाएं बोलने वालों की मृत्यु के कारण लुप्त होने लगीं। अत: उसे बचाने की प्रार्थना लेकर सनकादि सिद्ध दक्षिण में चिदम्बरम्‌ में भगवान शिव के पास गए। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने अपने स्वर्गिक नृत्य के अन्तराल में अपने डमरू को नौ और पांच अर्थात्‌ चौदह बार बजाया। उसी से १४ ध्वनि सूत्र निकले, जो माहेश्वर सूत्र कहलाये। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है-

नृत्तावसाने नटराजराजो
ननाद ढक्कां नवपंचवारम्‌।
उद्धर्तुकाम: सनकादिसिद्धान्‌ एतद्विमर्षे शिवसूत्रजालम्‌।
कौशिक सूत्र-१

चौदह माहेश्वर सूत्रों का उल्लेख पाणिनी निम्न प्रकार से करते हैं। (१) अ इ उ ण्‌ (२) ऋ लृ क्‌ (३) ए ओ ङ्‌ (४) ऐ औ च्‌ (५) ह य व र ट्‌ (६) ल ण्‌ (७) ञ म ङ ण न म्‌ (८) झ भ ञ्‌ (९) ध ठ घ ष्‌ (१०) ज ब ग ड द श्‌ (११) ख फ छ ठ थ च ट त्र य्‌ (१२) क प य्‌ (१३) श ष स र्‌ (१४) ह ल्‌

४. वेदों के स्मरण व उनकी शुद्धता बनी रहे इस हेतु विभिन्न ऋषियों ने जटा, माला, शिखा, रेखा, दण्ड, रथ, ध्वज, तथा घन पाठ की जटिल पद्धतियां विकसित कीं, जो बिना लिखे सुरक्षित रखना कठिन था।

५. महाभारतकार व्यास मुनि जब महाभारत लिखने का विचार कर रहे थे तब उनके सामने समस्या थी कि इसे लिखे कौन, तब उन्होंने उसके समाधान हेतु गणेशजी का स्मरण किया- ‘काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशं स्मर्यताम्‌ मुने‘। जब गणेश जी आए तो व्यास मुनि ने उनसे कहा ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक:, अर्थात्‌ ‘आप भारत ग्रंथ के लेखक बनें।‘ इसका अर्थ है गणपति उस समय के मूर्धन्य लिपिकार थे।

पाणिनी ने ऋग्वेद्‌ शिक्षा में विवेचन किया है कि वाणी अपने चार पदों में से चौथे पद वैखरी में आती है, तब मनुष्य के शरीर के पंच अंग के सहारे ध्वनि उत्पन्न होती है। इस आधार पर स्वर व व्यजंनों का सम्बंध जिस अंग में आता है उसका वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

१. कंठ्य-श्वास कंठ से निकलता है तब तो ध्वनि निकलती है उसके अर्न्तगत निम्न अक्षर आते हैं- अ,आ, क, ख, ग, घ, ङ, ह और विसर्ग।

२. तालव्य- कंठ से थोड़ा ऊपर दांतों के निकट कठोर तालु पर से जब श्वास निकलती है तो वह ध्वनि इ,ई,च,छ,ज,झ,ञ,य और श के द्वारा अभिव्यक्त होती है।

३. मूर्धन्य-जीभ थोड़ी पीछे लेकर कोमल तालु में लगाकर ध्वनि निकालने पर वह निम्न अक्षरों में व्यक्त होती है-ऋ,ट,ठ.ड,द,ण,ष।

४. दंत्य-जीभ दांतों से लगती है तब जिन अक्षरों का उच्चारण होता है वह हैं लृ,ल,त,थ,द,ध,न,स।

५. ओष्ठ्य-दोनों ओठों के सहारे जिन अक्षरों का उच्चारण होता है वह हैं- उ,ऊ,प,फ,ब,भ, म, और व।

इनके अतिरिक्त ए,ऐ,ओ,औ,अं,अ: यह मिश्रित स्वर हैं।
उपर्युक्त ध्वनि शास्त्र के आधार पर लिपि विकसित हुई और काल के प्रवाह में लिपियां बदलती रहीं, पर उनका आधार ध्वनि शास्त्र का मूलभूत सिद्धान्त ही रहा। प्रख्यात पुरातत्वविद्‌ वालावलकर जी ने प्राचीन मुद्राओं में प्राप्त लिपियों का अध्ययन कर प्रमाणित किया कि मूल रूप में माहेश्वरी लिपि थी जो वैदिक लिपि रही। इसी से आगे चलकर व्राह्मी तथा नागरी आदि लिपियां विकसित हुएं।

साभार: प्राप्त

“हत्था-जोड़ी” क्या है इसका प्रयोग !

जानिए क्या होती है तांत्रिक साधना में काम आने वाली हत्था जोड़ी:क्यों है इसका इतना गहरा प्रभाव..!

पूर्व काल से ही तांत्रिक वस्तुयें भाग्य वृद्धि/सुरक्षा के लिये प्रयोग में लाई जारही है। इनमे से प्रमुख है हत्था जोड़ी जब व्यक्ति को जीवन मे कोई साधन/रास्ता न मिले, तो दीपावली की रात को यह मन्त्र पूजा से सिद्ध करके अपने पास में रखने से साधनो की प्राप्ति में सहायता मिलती है क्योकि इस दीपावली की विशेष रात्रि को मंत्रो द्वारा सिद्धि प्राप्त करने की विशेष योग है।

हत्था जोडी की बात करें तो यह एक प्रभावशाली तांत्रिक वस्तु है, यह बहुत पुराने जंगलों में दाब नाम की घास के पेड की जड से निकलती है। इस जड़ की आकृति दो जुड़े हुए हाथों के रूप में होती है, इसलिए इसे हत्था जोड़ी कहा गया है। तंत्र शास्त्र में हत्था जोड़ी एक विशिष्ट स्थान रखती है।हत्था जोड़ी

तांत्रिक प्रयोगों में काम आने वाली एक दुर्लभ एवं चमत्कारिक वस्तु है। ये एक प्रकार की वनस्पति बिरवा की जड़ है, लेकिन इसे दुर्लभ माना जाता है, क्योकि ये सहज उपलब्ध नहीं होती है।

हत्था जोड़ी के प्रभाव

ये साक्षात् माँ महाकाली और कामाख्या देवी का स्वरुप मानी जाती है। देखने में ये भले ही किसी पक्षी के पंजे या मनुष्य के हाथो के समान दिखे लेकिन असल में ये एक पौधे की जड़ है।

तांत्रिको के अनुसार दीपावली की रात को सिद्ध की गई हत्था जोड़ी जीवन भर संकटों, बाधाओं, ऊपरी हवा, किसी किये कराये या बुरे तांत्रिक प्रभाव से साधक की रक्षा करती है।

हत्था जोड़ी का प्रयोग दांपत्य जीवन में आ रही समस्यओं को दूर करने में, व्यापार वृद्धि में, धन प्राप्ति इत्यादि में की जाती है | इसे स्त्रियों को छूना मना होता है स्त्रियों के छूने से इसकी शक्ति ख़त्म हो जाती है.ऐसा शस्त्रों मे लिखा है.इसे पीले सिंदूर मे चाँदी की डिब्बी मे लौंग ,इलायची ,गुग्गूल,चाँदी आदि वस्तुओं के साथ आभिमंत्रित करके रक्खा जाता है|

ज्योतिष के अनुसार यह जड़ बहुत चमत्कारी होती है और किसी कंगाल को भी मालामाल बना सकती है। इस जड़ के असर से मुकदमा, शत्रु संघर्ष, दरिद्रता से जुड़ी परेशानियों को दूर किया जा सकता है। इस जड़ से वशीकरण भी किया जाता है और भूत-प्रेत आदि बाधाओं से भी निजात मिल सकती है।

हत्था जोड़ी जो की एक महातंत्र में उपयोग में लायी जाती है और इसके प्रभाव से शत्रु दमन तथा मुकदमो में विजय हासिल होती है ।

आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है तो आपको अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उपाय करना चाहिए। इसके लिए किसी भी शनिवार अथवा मंगलवार के दिन हत्था जोड़ी घर लाएं। इसे लाल रंग के कपड़े में बांधकर घर में किसी सुरक्षित स्थान में अथवा तिजोरी में रख दें। इससे आय में वृद्घि होगी एवं धन का व्यय कम होगा।

तिजोरी में सिन्दूर युक्त हत्था जोड़ी रखने से आर्थिक लाभ में वृद्धि होने लगती है। हाथा जोड़ी एक जड़ है। गायत्री मंत्र से पूजने के बाद इलायची तथा तुलसी के पत्तों के साथ एक चांदी की डिब्बी में रख दें। इससे धन लाभ होता है।हाथा जोड़ी को इस मंत्र से सिद्ध करें-

ऊँ किलि किलि स्वाहा।

हत्था जोड़ी मंत्र अगर आप दांपत्य जीवन के लिए इसका प्रयोग कर रहे हो :—-

ॐ हाँ ग़ जू सः अमुक में वश्य वश्य स्वाहा |

हत्था जोड़ी मंत्र अगर आप धन और व्यापार के लिए इसका प्रयोग कर रहे हो :—

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्री महालक्ष्मयै नमः |

हत्था जोड़ी मंत्र अगर आप शिक्षा और नौकरी के लिए इसका प्रयोग कर रहे हो :—-

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सरस्वतये नमः

प्रश्न कुण्डली- बिना जीवन कुण्डली के जाने

इस लेख के माध्यम से मैं आप सभी को बताना चाहता हूं कि प्रश्न कुंडली एक बहुत ही अच्छा तरीका है जब किसी इंसान के पास कुंडली ना हो और उसके पास कोई एक खास सवाल हो तो इस सवाल का जवाब देने के लिए सबसे अच्छा तरीका प्रश्न कुंडली होता है

प्रश्न कुंडली किस तरह काम करती है अगर प्रश्न करने वाला व्यक्ति दिल से ईमानदारी से साफ साफ सवाल पूछता है तो जिस वक्त वह सवाल पूछता है उस वक्त की सभी ग्रहों की स्थिति कुछ इस तरह बनती है कि उनकी वाइब्रेशन उनकी एनर्जी प्रश्नकर्ता के सवाल की एनर्जी के साथ मैच करने लगती है और इसी वजह से प्रश्नकर्ता भी उसी वक्त सवाल करता है।

जब लगन उस सवाल के समकक्ष चल रहा हो इसी वजह से प्रश्न कुंडली हमेशा ऐसे ही बनती है जैसा सवाल पूछा गया है प्रश्न कुंडली में हमेशा सबसे ज्यादा इस बात का ध्यान रखा जाता है की लग्नेश और लग्न क्या है, लग्न चर और उसकी दिशा आदि, जो भी बहुत सारी बाते हमने बेसिक एस्ट्रोलॉजी में राशियों के बारे में पढी, वो सभी बाते यहाँ काम आती है।

1• सामान्य प्रश्न विचार :- प्रश्न ज्योतिष से प्रश्न कर्ता जब प्रश्न करता है उसी समय का लग्न बनाकर प्रश्नों का उत्तर दे तो काफी हद तक जो व्यक्ति अभी नया नया ज्योतिष पढ़ रहा हों और ज्यादा अनुभव नहीं भी हों तो भी प्रश्नों का उत्तर निकाल सकता है।

सबसे पहले जब यह निकलना हो उस समय कि कुंडली बना ले | जो भी लग्न चल रहा हों उस लग्न का स्वामी लग्नेश व जिस भाव के लिए प्रश्न किया गया हों वो कार्येष कहलाता है क्रमश: उन दोनों ग्रहों कि जाती, गुण,अवस्था कि जानकारी कर इष्ट फल बताये |

लग्नेश कार्येष अपने अपने भाव में स्थित हों या कार्येष लग्न में हों लग्नेश कार्य भाव में हों तो वांछित सिद्धी मिलती है परन्तु इनमेसे कोई भी एक भाव पर चंद्रमा कि पूर्ण दृष्टि हों तो कार्य पूर्ण रुप से सिद्ध होता है।

अगर एसी स्थिति में इन पर चंद्रमा नहीं देख रहा हों परन्तु और कोई शुभ ग्रह देखता हों तो यह कार्य तो सिद्ध नहीं होगा परन्तु कोई अन्य कार्य कि सिद्धी होगी |

2• प्रश्नकर्ता सीधा है या कुटिल :- लग्न में चंद्रमा व केतु , {१ ४ ७ १० } शनि हों , बुद्ध अस्त हों चंद्रमा मंगल या शनि पूर्ण दृष्टि से देखते हों तो प्रश्न कर्ता कुटिल है वह ज्योतिषी कि परीक्षा लेने आया है या ज्योतिषी कि मजाक बनाने आया है। जैसा की अक्सर लोग फ्री के नाम पर आते है और ज्योतिषी का वक़्त खराब करते है।
इसलिए आप पृश्नकृता के पृश्न किये बिना भी पृश्न कुंडली बना सकते है। अगर लग्न में शुभ ग्रह हों तो प्रश्नकर्ता सरल व्यक्ति है उसको वाकई अपना भविष्य जानना है |

यदि चंद्रमा , गुरु लग्न या सप्तम स्थान को मित्र दृष्टि से देखते हों तो भी प्रश्नकर्ता सरल स्वभाव का है परन्तु प्रश्न के समय गुरु और चंद्रमा कि शत्रु द्रष्टि सप्तमेश पर हों तो कुटिल है। अगर चंद्रमा व गुरु एक राशी में हों तो प्रश्नकर्ता सरल व्यक्ति है |

3• वर्तमान,भूत या भविष्य कैसा :- यदि चंद्रमा और गुरु का योग सप्तमेश के साथ हों तो प्रश्नकर्ता का वर्तमान समय ठीक है और आगे भी ठीक होगा | यदि ऐसा नहीं है तो वर्तमान भी ठीक नहीं है आगे भी ठीक नहीं होगा |

इसी में लग्नेश व कार्येष का योग जिस दिन हों और कार्येष उदय होकर लग्न में पंहुचे या कार्येष और लग्नेश कि परस्पर दृष्टि हों उसी दिन कार्य होगा | इस तरह से मोटे तोर पर कार्य होगा या नहीं , होगा तो कब होगा यह छोटी छोटी भविष्य वाणी थोड़े से अध्ययन से कि जा सकती है |

मतलब ये सबसे सामान्य नियम है। मेरी आप से विनती है, की आप जब खुद इसकी अभ्यास करेंगे, तो ज्यादा समझ पाएंगे।

PMBJP प्रधानमंत्री जन औषधि

PMBJP
PMBJP
  • हर सफलता और समृद्धि का आधार है स्वास्थ्य , फिर वो प्रगति चाहे एक व्यक्ति से जुड़ी हो , परिवार या समाज से जुड़ी हो या पूरे राष्ट्र से जुड़ी हो , उसकी बुनियाद स्थास्थ्य पर ही टिकी होती है …
  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन विश्व बैंक की वर्ष 2014 में जारी एक रिपोर्ट के संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण हैं । इस रिपोर्ट के अनुसार देश के 6.3 करोड़ लोग गंभीर बीमारियों के इलाज में भारी – भरकम खर्च की वजह से हर वर्ष गरीबी रेखा के नीचे चले जाते थे ।
  • आम आदमी के इसी बोझ को कम करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना की शुरुआत की फिर 23 सितंबर को अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाते हुए गरीबों के लिए 5 लाख रुपये के स्वास्थ्य बीमा देने के लिए पीएमजय – आयुष्मान भारत योजना शुरु की गई ।
  • दिल की गंभीर बीमारियों से जूझ रहे मरीजों के हित में कदम उठाते हुए फरवरी 2017 में स्टेट्स की कीमतों में 50 से 70 फीसदी तक की कटौती की गई । घुटने के इंप्लांट केप की कीमत में भी 70 % तक की कमी की गई है । डॉक्टरों के लिए भी अब जेनरिक दवाएं लिखना अनिवार्य कर दिया गया है ।
  • केंद्र सरकार की फ्लैगशिप योजना में इस बार हम प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना की चात करेंगे , जिसके तहत आज देशभर में 6 हजार 634 जन औषधि केंद्र लोगों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करा रहे इन केंद्रों पर आप 1250 तरह की दवाएं और 204 सर्जरी के उपकरण 50 से 90 फीसदी तक सस्ते दामों पर खरीद सकते हैं ।
  • वेबसाइट http://janaushadhi.gov.in/ProductList.aspx पर क्लिक कर इन दवाओं की पूरी सूची और बाजार के मुकाबले दवाओं के दाम चेक किए जा सकते हैं । दरअसल , जन औषधि योजना की शुरुआत वर्ष 2008 में भी की गई थी । लेकिन , उचित दृष्टिकोण और बिना किसी लक्ष्य के यह दम तोड़ने लगी और वर्ष 2014 तक पूरे देश में मात्र 99 जन औषधि केंद्र ही खुल पाए । इसके बाद वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना ( पीएम – बीजेपी ) के रूप में इसे विस्तार देकर दोबारा शुरू किया गया ।
  • यही नहीं , इसकी सही निगरानी हो सके और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इसका लाभ पहुंचे , इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए बाकायदा ऑफ फामा पीएसयू ऑफ इंडिया ( बीपीपीआई ) की स्थापना कर , उसे इस योजना का काम सौंपा गया ।
  • मौजूदा सरकार के प्रयासों का ही नतीजा कि वर्ष 2014 तक जहां देश में केवल 99 जन औषधि केंद्र खुल पाए थे , 12 अक्टूबर 2020 तक इनकी संख्या 6,634 पहुंच चुकी है यह व देश के 732 जिलों में मौजूद है केंद्र सरकार का लक्ष्य वर्ष 2024 तक देश के हर जिले में जन औषधि केंद्र की शुरुआत करना है , ताकि म लोगों को उचित मूल्य पर सही दवा मिल सके । इन जन औषधि पर 2000 तरह की और सर्जिकल उपकरण सस्ते दामों पर खरीदे गंदे जा सकेंगे ।
  • केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने नवंबर 2020 के पहले सप्ताह में पीएमबीजेपी की समीक्षा व ब्यूरो ऑफ फार्मा पीएसयू ऑफ इंडिया ( बीपीपीआई ) को जन औषधि दवाओं के प्रभाव , गुणवत्ता , ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंच बढ़ाने के लिए एक कार्य योजना तैयार करने के निर्देश दिए हैं

नई शुरुआत …

1 रुपये में सेनेटरी नैपकिन अब तक 7 करोड़ से ज्यादा बिके

PMBJP Store

पर्यावरण के अनुकूल ” जनऔषधि सुविधा ऑक्सी – बायोडिग्रेडेबल सेनेटरी नैपकिन भी जन औषधि केंद्रों पर उपलब्ध हैं , वो भी मात्र । रुपये में जी हां 4 जून , 2018 को फार्मास्युटिकल्स विभाग की तरफ इसकी शुरुआत की गई थी । 30 सितंबर 2020 तक जन औषधि केद्रों से 7 करोड़ सेनेटरी नैपिकिन बेचे जा चुके हैं । 15 अगस्त 2020 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर र र से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसका जिक्र करते रते हुए कहा था- ” गरीब बहन – बेटियों स्वास्थ्य की चिंता की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है ”

सुगम एप से खोजें नजदीकी केंद्र और दवा

  • कोई भी आम नागरिक अपने नजदीक में जन औषधि केंद्र से सस्ते दामों पर दवाएं ले सकता है । यदि आपको जन औषधि केंद्र का पता नहीं मालूम तो आपकी सुविधा के लिए एक डिजिटल प्लेटफॉर्म या मोबाइल एप्लीकेशन ” जन औषधि सुगम ” शुरू किया गया है ।
  • यह एप आप गूगल प्ले स्टोर या एप्पल स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं।एप पर आप अपना नजदीकी केंद्र खोज सकते हैं जनऔषधि केंद्र पर कौन सी दवाएं उपलब्ध हैं , जेनरिक दवा और ब्रांडेड दवा की तुलना , कीमत और बचत के आधार पर भी इसी एप के जरिए कर सकते हैं।
  • एक साल में जन औषधि केंद्रों ने लोगों के 2200 करोड़ रुपए बचाए मार्च , 2020 तक 700 जिलों में 6200 से अधिक जन औषधि केंद्र से वित्त वर्ष 2019-20 में 433 करोड़ रुपए की सस्ती दवा बेची गई । ये दवा बाँडेड कंपनियों के मुकाबले 50-90 % तक सस्ती है ।
  • यानी अनुमान के मुताबिक इससे बीमार लोगों या उनके परिवार की दवा जन औषधि खर्च में 2200 करोड़ रुपए की बचत हुई है रोजगार का सहारा भी बने जन औषधि केंद्र …

कौन खोल सकता हैं

पीएम – बीजेपी केंद्र पीएमवीजेपी केंद्र कोई भी व्यक्ति , बेरोजगार फार्मासिस्ट , डॉक्टर , रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर , ट्रस्ट , एनजीओ , प्राइवेट हॉस्पिटल , सोसायटी और सेल्फ हेल्प पुप या राज्य सरकारों की तरफ से नामित एजेंसी दुकान खोल सकती है ।

केंद्र खोलने के लिए रिटेल ड्रग सेल्स का लाइसेंस जन औषधि केंद्र के नाम पर लेना होगा । 120 वर्गफुट क्षेत्र की दुकान होनी चाहिए । यदि आप पौषम – बीजेपी सेंटर खोलना चाहते है तो ऑनलाइन आवेदन करने के लिए https://janaushadhi.gov.in/onlineregistration पर क्लिक करें ।

स्वास्थ्य हमारे जीवन । सबसे बड़ी पूंजी है । ऐसे में बेहतर स्वास्थ्य के लिए केंद्र सरकार द्वारा पीएमजस – आयुष्मान भारत योजना के साथ प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना खुशहाल भारत की दिशा में वरदान साबित हो रही है।

बेका समझौता

भारत और अमेरिका रक्षा क्षेत्र में अहम साझेदार हैं । दक्षिण एशिया के साथ दुनिया में बढ़ती हुई भूमिका के चलते अब भारत साझेदार है। इसी कड़ी में भारत और अमेरिका की प्लस टू वार्ता का आयोजन 27 अक्टूबर को दिल्ली में किया गया । अमेरिका की ओर से इसमें विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो , रक्षा मंत्री मार्क एस्पर और भारत की ओर से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस . जयशंकर मौजूद रहे । दोनों देशों के बीच सहमति के बाद बेका ( बेसिक एक्सचेंजएंड कोऑपरेशन फॉर जिओ स्पेशल कोऑपरेशन ) समझौते पर हस्ताक्षर किए गए । यह समझौता भारत और अमेरिका के बीच रक्षा क्षेत्र से जुड़े चार महत्वपूर्ण समझौतों की अंतिम कड़ी है।

क्या है टू प्लस टू वार्ता

रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण साझेदार दो देशों के बीच समकक्ष स्तर की बातचीत को टू प्लस टू वार्ता कहा जाता है । दुनिया में पहली बार जापान ने इसकी शुरुआत की थी । भारत और अमेरिका के बीच सितंबर 2018 में दिल्ली में ही इसकी शुरुआत हुई थी । दिसंबर 2019 में दूसरी वार्ता न्यूयॉर्क में हुई थी ।

बेका समझौता क्या है

  • ‘ बेका ‘ भारत और अमरीका के बीच होने वाले चार मूलभूत समझौतों में से आख़िरी है । इससे दोनों देशों के बीच लॉजिस्टिक्स और सैन्य सहयोग को बढ़ावा मिलेगा ।
  • पहला समझौता 2002 में किया गया था जो सैन्य सूचना की सुरक्षा को लेकर था । इसके बाद दो समझौते 2016 और 2018 में हुए जो लॉजिस्टिक्स और सुरक्षित संचार से जुड़े थे।
  • ताज़ा समझौता भारत और अमेरीका के बीच भू – स्थानिक सहयोग है। इसमें क्षेत्रीय सुरक्षा में सहयोग करना , रक्षा सूचना साझा करना , सैन्य बातचीत और रक्षा व्यापार के समझौते शामिल हैं।
  • इस समझौते पर हस्ताक्षर का मतलब है कि भारत को अमरीकी से सटीक भू – स्थानिक ( जिओ स्पेशल ) डेटा मिलेगा जिसका इस्तेमाल सैन्य कार्रवाई में बेहद कारगर साबित होगा।
  • इस समझौते का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि अमेरीकी सैटेलाइट्स से जुटाई गई जानकारियां भारत को साझा की जा सकेंगी । इसका रणनीतिक फायदा भारतीय मिसाइल सिस्टम को मिलेगा । इसके साथ ही भारत उन देशों की श्रेणी में भी शामिल हो जाएगा जिसके मिसाइल हज़ार किलोमीटर तक की दूरी से भी सटीक निशाना साध सकेंगे।
  • इसके अलावा भारत को अमेरीका से प्रिडेटर – बी जैसे सशस्त्र ड्रोन भी उपलब्ध होंगे । हथियारों से लैस ये ड्रोन दुश्मन के ठिकानों का पता लगा कर तबाह करने में सक्षम हैं।

बेका समझौते के बाद दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने आतंकवाद और विस्तारवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता जताई है । आतंकवाद के खिलाफ दुनिया के सामने अपनी बात सबसे जोरदार तरीके से रखने वाला भारत अब अमेरिका के साथ अहम समझौते कर रहा है । अमेरिका , जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वॉड समूह में भारत भी अहम साझेदार है । भावी चुनौतियों और आतंकवाद के मुद्दे पर भारत को हमेशा से इन देशों का साथ मिलता रहा है ।

Contact Lens (कॉन्टैक्ट लेन्स) आइए जानें!

कॉन्टैक्ट लेंस आंख के गोले के ऊपर फिट किया जाता है, यह आमतौर पर दृष्टि दोषों को ठीक करने के लिये प्रयोग किये जाते हैं।

चिकित्सकों द्वारा बनाया गया सॉफ्ट लेंस का उपयोग अक्सर आंख के गैर-अपवर्तक विकारों के उपचार और प्रबंधन में किया जाता है। एक पट्टी संपर्क लेंस रोगी को पलक झपकने की लगातार रगड़ से घायल या रोगग्रस्त कॉर्निया की सुरक्षा करते हुए देखने की अनुमति देता है, जिससे वह ठीक हो सकता है। दृष्टि स्थितियों के उपचार में किया जाता है ।

जलस्फोटी keratopathy, सूखी आंखें, कॉर्निया खरोंच और कटाव, स्वच्छपटलशोथ, कॉर्निया शोफ, descemetocele, कॉर्निया विस्फारण, मूरेन के अल्सरपूर्वकाल कॉर्नियल डिस्ट्रोफी, और न्यूरोट्रोफिक केराटोकोनजैक्टिवाइटिस। कॉन्टेक्ट लेंस जो आंखों तक ड्रग्स पहुंचाते हैं, उन्हें भी विकसित किया गया है।

दोषों को ठीक करने के लिये कन्टैक्ट लेन्सों का सबसे पहले सन् 1887 में ए.ई. फिक ने विकास किया था।

आरम्भ में ये लेंस कांच को ब्लो करके या ग्लास की टेस्ट ट्यूब की तली को घिस कर और पालिश करके बनाये जाते थे। पहले ये लेंस सफल नहीं हुए और कुछ दिनों तक ये केवल चर्चा का विषय ही बने रहे।

कुछ समय पाश्चात, इस विषय में सार्थक प्रगति 1938 में हुई जब मिथाइल मेथाक्रलेट (methyl methacrylate) जैसे प्लास्टिक से बने कन्टैक्ट लेन्स विकसित किए गए।

1938 से 1950 तक आंखों की छाप लेकर और उसका मोल्ड बनाकर अनेक कन्टैक्ट लेंस बनाये जाते रहे। ये लेंस आंख के सम्मुख भाग को पूरी तरह ढक लेते हैं और इसके लिए इनके नीचे एक तरल पदार्थ का प्रयोग किया जाता है।

1950 के बाद छोटे लेंस तैयार होने लगे जो केवल कार्निया (cornea) को ही ढकते थे। ये एक तरह से आंसुओं की एक तह पर तैरते हैं।

इस लेंस के लिए आंख की छाप लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कार्निया का नाप उपकरणों से लिया जा सकता है। इन लेंसों का व्यास सामान्य तौर पर 7 से 11 मिमी. और इनकी मोटाई 0.1 से 1 मिमी. तक होती है। ये पूरे दिन बिना हटाये पहने जा सकते हैं।

कन्टैक्ट लेंस फिट करने से पहले आंख का परीक्षण किया जाता है। यह परीक्षण ठीक उसी प्रकार से किया जाता है, जिस प्रकार से चश्मा लेने से पहले कराते हैं।

फिर “कराटोमीटर” नाम के उपकरण से पुतली का कर्वेचर (curvature) नाप लिया जाता है। लेंस के व्यास और शक्ति का निर्णय हो जाने पर इसी नाप और शक्ति का लेंस निर्मित कर लिया जाता है।

कन्टैक्ट लेंस बनाने के लिए पहले प्लास्टिक को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है। इन टुकड़ों को खराद पर चढ़ा कर बटन की शक्ल की गोलियां बना ली जाती हैं। इनको बोनेट कहते हैं।

तब मशीनों की मदद से इनको अलग-अलग शक्ति देने के लिये वांछित गोलाई दी जाती है, अन्त में इन पर पालिश कर दी जाती है। इसके बाद लेंस को आंख पर लगा कर देखा जाता है कि वह सही बैठता है या नहीं। सही होता है तो आंख पर लगा लिया जाता है।

अभ्यास करने पर इस लेंस को लगातार बारह घंटों तक आंखों पर लगाये रखा जा सकता है। पुतली पर चढ़ा कन्टैक्ट लेंस दूसरे व्यक्ति को दिखाई नहीं देता। इस गुण के अतिरिक्त यह सामान्य चश्मे से बहुत अधिक विस्तृत दृश्य-विस्तार प्रदान करता है।

खेल-कूद में भी ये बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि न ये आसानी से खोते हैं न टूटते हैं । इनसे तेज धूप से भी व्यक्ति की रक्षा होती है, पहले ये आंख की बीमारियों में ये काम नहीं आते थे पर वर्तमान में ये आँख की कई समस्यायों के निदान मे काम आने लगे हैं। ये महंगे अधिक होते हैं और कुछ लोगों को इन्हें लगाने में परेशानी भी होती है।

विज्ञान ने पहले से छोटे और अधिक लचकदार लेंस खोज निकाले हैं। सातवें दशक के प्रारम्भ से हाइड्रोक्सी-इथाइल मेथाक्रिलेट (hydroxy-ethyl methacrylate) से मुलायम कन्टैक्ट लेंस बनाये जाने लगे हैं, जो पहनने में अपेक्षाकृत अधिक आरामदेह होते हैं।

कॉन्टैक्ट लेंस लगाने का तरीका

कॉन्टेक्ट लेंस आम तौर पर अवतल पक्ष के साथ सूचकांक या मध्य उंगली के पैड पर रखकर आंख में डाला जाता है और फिर उस उंगली का उपयोग करके लेंस को आंख पर रखा जाता है।

कठोर लेंस को सीधे कॉर्निया पर रखा जाना चाहिए। मुलायम लेंस को श्वेतपटल (आंख का सफेद) पर रखा जा सकता है और फिर जगह पर स्लाइड किया जा सकता है। एक ही हाथ की दूसरी उंगली, या दूसरे हाथ की एक उंगली, का उपयोग आंख को चौड़ा रखने के लिए किया जाता है।

वैकल्पिक रूप से, उपयोगकर्ता अपनी आँखें बंद कर सकते हैं और फिर अपनी नाक की ओर देख सकते हैं, लेंस को कॉर्निया के ऊपर जगह में सरका सकते हैं। समस्या तब उत्पन्न हो सकती है यदि लेंस फोल्ड हो जाता है, समय से पहले अंदर-बाहर हो जाता है, उंगली को बंद कर देता है, या आंख की सतह की तुलना में उंगली को अधिक कसकर पालन करता है। समाधान की एक बूंद लेंस को आंख से चिपकने में मदद कर सकती है।

Fool’s Gold झूठा-सोना

झूठा सोना ( Fool’s Gold ) किसे कहते हैं ? ‘ झूठा सोना दरअसल प्रकृति से प्राप्त होने वाला एक खनिज है । इसे आयरन डाइसल्फाइड़ या आइरन पाइराइट कहते हैं, यह रत्न की श्रेणी मे भी आता है। यह पीतल जैसी पीले रंग की चमकदार धातु होती है, इसलिए कभी-कभी इसे देखकर सोने का भ्रम हो जाता है, और यही कारण है कि इसका नाम ‘झूठा सोना’ पड़ा है। इसे माक्षिक भी कहते हैं।

पाइराइट्स सोने से बहुत सख्त और भुरभुरा होता है , इसीलिए उसे अलग पहचाना जा सकता है । पाइराइट शब्द ग्रीक भाषा के पाइर ( pyr ) शब्द से बना है , जिसका अर्थ है आग ( fire ) । वास्तविकता तो यह है कि पाइराइट जब लोहे से टकराता है तो इसमें से आग की चिंगारियां निकलती हैं। पाइराइट के जले हुए अंश प्रागैतिहासिक काल के कब्रिस्तानों में पाये गये हैं । इससे स्पष्ट होता है कि आदिम युग में इस पदार्थ को आग जलाने के काम में लाया जाता था ।

झूठा- सोना