मोह-विसर्जन का सुख


किसी नगर में एक आदमी रहता था। वह पढ़ा-लिखा और चतुर था।

एक बार उसमें धन कमाने की लालसा पैदा हुई। उसके लिए उसने प्रयत्न आरंभ किया। देखते-देखते उसके पास लाखों की संपदा हो गई…

पर उसके पास ज्यों-ज्यों पैसा आता गया, उसका लोभ बढ़ता गया। साथ ही धन का ढेर भी ऊंचा होता गया।

वह बड़ा खुश था। पहले तो उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी और अब उसकी तिजोरियां भरी थीं और एक-से-एक बढ़िया उसके मकान खड़े थे।

उसे सब प्रकार की सुविधाएं थीं। धन के बल पर वह जो चाहे प्राप्त कर सकता था, लेकिन एक चीज थी जिसका उसके जीवन में बड़ा अभाव था.. उसके कोई लड़का नहीं था।

धीरे-धीरे उसकी किशोरावस्था बीतने लगी, पर धन संपत्ति के प्रति उसकी मूर्च्छा में कोई अंतर नहीं पड़ा।

अचानक एक दिन, रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े उसने देखा कि सामने कोई अस्पष्ट-सी आकृति खड़ी है।

उसने घबराकर पूछा… कौन..?

उत्तर मिला… ‘मृत्यु’ … इतना कहकर वह आकृति अंतर्धान हो गई।

आदमी बेहाल हो गया। मारे बेचैनी के उसे नींद नहीं आई।

इतना ही नहीं, उस दिन से जब भी वह एकांत में होता, मौत उसके सामने आ जाती, उसका सारा सुख मिट्टी हो गया।

मन चिंताओं से भर गया… वह हर घड़ी भयभीत रहने लगा।

कुछ ही दिनों में उसके चेहरे का रंग बदल गया। वह वैद्य-डॉक्टरों के पास गया, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हुआ।

ज्यों-ज्यों दवा की, रोग घटने के बजाय बढ़ता ही गया।

लोगों ने उसकी यह दशा देखी तो कहा कि नगर के उत्तरी छोर पर एक साधु रहता है, वह सब प्रकार की व्याधियों को दूर कर देता है।

बड़ी आशा से वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और उसे अपनी सारी दास्तान सुनाई।

अंत में उनके चरण पकड़कर रोते हुए प्रार्थना की… भगवन् मेरा कष्ट दूर करो.. मौत मेरा पीछा नहीं छोड़ती।

साधु ने उसकी सारी बात ध्यान से सुनी और कहा, भले आदमी ! मोह और मृत्यु परम मित्र हैं।

जब तक तुम्हारे पास मोह है, मृत्यु आती ही रहेगी। मृत्यु से छुटकारा तभी मिलेगा जबकि तुम मोह का पल्ला छोड़ोगे।

आदमी ने गिड़गिड़ाकार कहा, महाराज, मैं क्या करूं ? मोह छूटता ही नहीं…

साधु सांत्वना देते हुए बड़े प्यार से बोले, परेशान मत होओ, मैं तुम्हें मोह-विसर्जन का उपाय बताता हूं।

कल से ही तुम एक काम करो.. एक हाथ से लो दूसरे से दो, मुट्ठी मत बांधो। हाथ को खुला रखो.. तुम्हारा रोग तत्काल दूर हो जाएगा।

साधु की बात उसके दिल में घर कर गई। नए जीवन का आरंभ हुआ।

कुछ ही दिन में उसने देखा कि उसका न केवल रोग ही दूर हुआ, बल्कि उसको उस आनंद की उपलब्धि भी हुई जो उसे पहले कभी नहीं मिला था।