कॉन्टैक्ट लेंस आंख के गोले के ऊपर फिट किया जाता है, यह आमतौर पर दृष्टि दोषों को ठीक करने के लिये प्रयोग किये जाते हैं।
चिकित्सकों द्वारा बनाया गया सॉफ्ट लेंस का उपयोग अक्सर आंख के गैर-अपवर्तक विकारों के उपचार और प्रबंधन में किया जाता है। एक पट्टी संपर्क लेंस रोगी को पलक झपकने की लगातार रगड़ से घायल या रोगग्रस्त कॉर्निया की सुरक्षा करते हुए देखने की अनुमति देता है, जिससे वह ठीक हो सकता है। दृष्टि स्थितियों के उपचार में किया जाता है ।
जलस्फोटी keratopathy, सूखी आंखें, कॉर्निया खरोंच और कटाव, स्वच्छपटलशोथ, कॉर्निया शोफ, descemetocele, कॉर्निया विस्फारण, मूरेन के अल्सरपूर्वकाल कॉर्नियल डिस्ट्रोफी, और न्यूरोट्रोफिक केराटोकोनजैक्टिवाइटिस। कॉन्टेक्ट लेंस जो आंखों तक ड्रग्स पहुंचाते हैं, उन्हें भी विकसित किया गया है।
दोषों को ठीक करने के लिये कन्टैक्ट लेन्सों का सबसे पहले सन् 1887 में ए.ई. फिक ने विकास किया था।
आरम्भ में ये लेंस कांच को ब्लो करके या ग्लास की टेस्ट ट्यूब की तली को घिस कर और पालिश करके बनाये जाते थे। पहले ये लेंस सफल नहीं हुए और कुछ दिनों तक ये केवल चर्चा का विषय ही बने रहे।
कुछ समय पाश्चात, इस विषय में सार्थक प्रगति 1938 में हुई जब मिथाइल मेथाक्रलेट (methyl methacrylate) जैसे प्लास्टिक से बने कन्टैक्ट लेन्स विकसित किए गए।
1938 से 1950 तक आंखों की छाप लेकर और उसका मोल्ड बनाकर अनेक कन्टैक्ट लेंस बनाये जाते रहे। ये लेंस आंख के सम्मुख भाग को पूरी तरह ढक लेते हैं और इसके लिए इनके नीचे एक तरल पदार्थ का प्रयोग किया जाता है।
1950 के बाद छोटे लेंस तैयार होने लगे जो केवल कार्निया (cornea) को ही ढकते थे। ये एक तरह से आंसुओं की एक तह पर तैरते हैं।
इस लेंस के लिए आंख की छाप लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कार्निया का नाप उपकरणों से लिया जा सकता है। इन लेंसों का व्यास सामान्य तौर पर 7 से 11 मिमी. और इनकी मोटाई 0.1 से 1 मिमी. तक होती है। ये पूरे दिन बिना हटाये पहने जा सकते हैं।
कन्टैक्ट लेंस फिट करने से पहले आंख का परीक्षण किया जाता है। यह परीक्षण ठीक उसी प्रकार से किया जाता है, जिस प्रकार से चश्मा लेने से पहले कराते हैं।
फिर “कराटोमीटर” नाम के उपकरण से पुतली का कर्वेचर (curvature) नाप लिया जाता है। लेंस के व्यास और शक्ति का निर्णय हो जाने पर इसी नाप और शक्ति का लेंस निर्मित कर लिया जाता है।
कन्टैक्ट लेंस बनाने के लिए पहले प्लास्टिक को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है। इन टुकड़ों को खराद पर चढ़ा कर बटन की शक्ल की गोलियां बना ली जाती हैं। इनको बोनेट कहते हैं।
तब मशीनों की मदद से इनको अलग-अलग शक्ति देने के लिये वांछित गोलाई दी जाती है, अन्त में इन पर पालिश कर दी जाती है। इसके बाद लेंस को आंख पर लगा कर देखा जाता है कि वह सही बैठता है या नहीं। सही होता है तो आंख पर लगा लिया जाता है।
अभ्यास करने पर इस लेंस को लगातार बारह घंटों तक आंखों पर लगाये रखा जा सकता है। पुतली पर चढ़ा कन्टैक्ट लेंस दूसरे व्यक्ति को दिखाई नहीं देता। इस गुण के अतिरिक्त यह सामान्य चश्मे से बहुत अधिक विस्तृत दृश्य-विस्तार प्रदान करता है।
खेल-कूद में भी ये बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि न ये आसानी से खोते हैं न टूटते हैं । इनसे तेज धूप से भी व्यक्ति की रक्षा होती है, पहले ये आंख की बीमारियों में ये काम नहीं आते थे पर वर्तमान में ये आँख की कई समस्यायों के निदान मे काम आने लगे हैं। ये महंगे अधिक होते हैं और कुछ लोगों को इन्हें लगाने में परेशानी भी होती है।
विज्ञान ने पहले से छोटे और अधिक लचकदार लेंस खोज निकाले हैं। सातवें दशक के प्रारम्भ से हाइड्रोक्सी-इथाइल मेथाक्रिलेट (hydroxy-ethyl methacrylate) से मुलायम कन्टैक्ट लेंस बनाये जाने लगे हैं, जो पहनने में अपेक्षाकृत अधिक आरामदेह होते हैं।
कॉन्टैक्ट लेंस लगाने का तरीका
कॉन्टेक्ट लेंस आम तौर पर अवतल पक्ष के साथ सूचकांक या मध्य उंगली के पैड पर रखकर आंख में डाला जाता है और फिर उस उंगली का उपयोग करके लेंस को आंख पर रखा जाता है।
कठोर लेंस को सीधे कॉर्निया पर रखा जाना चाहिए। मुलायम लेंस को श्वेतपटल (आंख का सफेद) पर रखा जा सकता है और फिर जगह पर स्लाइड किया जा सकता है। एक ही हाथ की दूसरी उंगली, या दूसरे हाथ की एक उंगली, का उपयोग आंख को चौड़ा रखने के लिए किया जाता है।
वैकल्पिक रूप से, उपयोगकर्ता अपनी आँखें बंद कर सकते हैं और फिर अपनी नाक की ओर देख सकते हैं, लेंस को कॉर्निया के ऊपर जगह में सरका सकते हैं। समस्या तब उत्पन्न हो सकती है यदि लेंस फोल्ड हो जाता है, समय से पहले अंदर-बाहर हो जाता है, उंगली को बंद कर देता है, या आंख की सतह की तुलना में उंगली को अधिक कसकर पालन करता है। समाधान की एक बूंद लेंस को आंख से चिपकने में मदद कर सकती है।